शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

राष्ट्रीय लक्ष्य से भटका राष्ट्र



Jul 23, 11:35 pm

अमेरिका की निगाह में भारत सिर्फ एक बाजार है। बाजार की कोई आवाज नहीं होती। हमारी बातों का इसीलिए कहीं कोई असर नहीं होता। हिलेरी क्लिंटन ने भी हमारे उद्योगपतियों से मुलाकात को प्राथमिकता दी है। यह यात्रा दरअसल पाकिस्तान की ओर बढ़ रहे अमेरिकी झुकाव को बैलेंस करने के लिए है। परमाणु करार के दौर में भारत से गर्मजोशी से पेश आने वाले अमेरिका की निगाह भी, ऐसा लगता है कि मात्र बाजार पर ही थी। अगर अमेरिका भारत में रणनीतिक साझेदारी की संभावनाएं नहीं तलाश पा रहा है तो शायद इसमें अमेरिकी गलती नहीं है। फिर गलती कहां है? हम दुनिया के इस हिस्से में अपनी भूमिका की निशानदेही आज तक क्यों नहीं कर पाए हैं? हमारा लोकतंत्र इस क्षेत्र में आशाओं का सूरज क्यों नहीं उगा सका? हमारी राष्ट्रहित की सोच क्या है? हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य क्या हैं?

अहिंसक आदोलनों की शक्तिहीनता, बेचारगी और पिटते हुए स्वराजी जैसे कि हमारी सोच का स्थाई हिस्सा हो गए और यह देश अपने इतिहास का बंधुआ बना हुआ, नकली सीमाओं को स्वीकार कर अपनी शक्तियों से बेखबर सिर्फ वक्त काट रहा है। हम सब टाइम पास कर रहे हैं। जब लक्ष्य ही नहीं है तो शक्ति किसलिए? तो फिर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से क्या उम्मीद की जाए? वैश्वीकरण के चलते हम एक बाजार जरूर बनते जा रहे हैं। आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की संख्या से लगभग ड्योढ़े चीनी छात्र भी हैं। उन्हें कोई हाथ नहीं लगाता। अमेरिका में भारतीय छात्रों की हत्याएं होती हैं। क्या किसी इजरायली, फलस्तीनी, किसी अरब को मार खाते, उनकी हत्याएं होते कहीं सुना गया? हममें अपने नागरिकों एवं राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए जिम्मेदारी का अभाव है। हमारे राजनीतिक और सामाजिक अंतरविरोध हमारे सशक्तीकरण के सबसे बड़े शत्रु है। हमारा कोई मिशन भी नहीं है। इसीलिए हमारी राजनीति में राजसुख के आकाक्षियों की भरमार है।

समस्या है कि राष्ट्र की सोच कैसे बने? आजादी के बाद राष्ट्रनिर्माण का आदोलन नहीं प्रारंभ हुआ, बल्कि नए जमींदारों द्वारा यह कहा जाने लगा कि हम तुम्हारे लिए सब कुछ कर रहे हैं, तुम्हें कुछ नहीं करना है। उन्हें मालूम था कि जन आदोलनों की ताकत उन्हें आगे चलकर सत्ता से बाहर कर देगी। राष्ट्र की शक्तियों को यथास्थितिवादी जाति, धर्म, क्षेत्रीयता के झगड़ों में उलझाए रखा गया। आजादी की मुहिम जो बहुत दूर तक जानी थी, 15 अगस्त 1947 के बाद प्रभावी तौर से रोक दी गई। 1947 के बाद भी आजादी की तहरीर को आगे लेकर चलने का दम रखने वाले नेता अंबेडकर, लोहिया और जयप्रकाश नारायण थे, लेकिन वे बढ़ते क्षेत्रवाद से मजबूर होकर हाशिए पर चले गए। राज्य बंटने लगे जैसे कि आजादी में अपना हिस्सा बांटने का वक्त आ गया हो। यह वक्त अंतरराष्ट्रीयवाद या विश्व को सुधारने का नहीं, बल्कि शक्ति को जागृत कर पसीना बहा राष्ट्र का निर्माण करने का और लालटेन जलाकर जनता-जनार्दन को पढ़ाने और भविष्य के सुनहरे सपने दिखाने का था। मुंबई हमले को हम कैसा भी मुद्दा बनाएं, उसमें कोई दम नहीं है। हमें ऐसे हमलों पर सही प्रतिक्रिया करना नहीं आया। हमारा मुकाबला ऐसे पेशेवर प्रशासन से है जिसे अपने ही नागरिकों को तालिबान बताकर मरवाने में गुरेज नहीं तो उसे भला मुंबई हमलों में जवाबदेही की चिंता क्यों होने लगी? हमारे पांचवें भाग के बराबर पाकिस्तान हमसे कहीं ज्यादा स्ट्रेटेजिक महत्व हासिल किए हुए है। उसके पास लंबी दूरी की मिसाइलें हैं, परमाणु बम हैं। वे और बम बनाते जा रहे हैं, यह जानते हुए भी अमेरिका उसे सहायता करने को मजबूर है। चीन से उसका याराना है। इस्लामी दुनिया में उसका रसूख कायम है। वह तालिबान से गृहयुद्ध लड़ रहा है। तबाही के करीब भी है, फिर भी तेवर में कोई कमी नहीं। दूसरी ओर हमें न दोस्ती की समझ है, न दुश्मनी की। जिस नैतिक बल के साथ हम आजाद हुए वह ताकत कहीं रास्ते में खो गई लगती है।

अफगानिस्तान की स्थितियां भारत से दखल की अपेक्षा करती हैं। फर्ज करें कि अगर हम अमेरिका के साथ सहयोग कर अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजने का काम कर सकते तो इस कदम का क्या परिणाम होता? पहला, अपने मित्र देश की आतरिक स्थिति सुधारने व स्थायित्व में हमारी सक्रिय भूमिका होती। अफगानिस्तान पर पाकिस्तान का षड्यंत्रकारी दबाव सीमित हो जाता और अमेरिका के पाकिस्तानी ब्लैकमेल की संभावनाएं भी क्षीण हो जातीं। इसके परिणामस्वरूप कश्मीर पर अमेरिकी नीतियों में आशातीत परिवर्तन देखने को मिलता। इसी तरह बर्मा की जनता को 14 वषरें से कैद आंग सान सू और लोकतंत्र की बहाली के लिए सक्रिय सहयोग की उम्मीद हमसे क्यों नहीं है? अपनी कमजोरियों से मजबूर हम लोग राष्ट्रहित में रणनीतिक फैसले न लेकर स्कूली बच्चे की तरह ओबामा से शिकायतें करते रहते हैं।

अंग्रेजों की अपने भारतीय साम्राज्य की रक्षा की रणनीतिक सोच हमसे कहीं बेहतर थी। भारत उनका देश नहीं था, लेकिन उन्होंने भारतीय साम्राज्य की रक्षा के लिए तिब्बत, बर्मा, अफगानिस्तान तक मोर्चा लगाया था। हम पश्चिम की आधुनिकता तो चाहते हैं, लेकिन पश्चिम का रणनीतिक साहस और शक्ति की सोच नहीं चाहते। दुनिया हमें एक भले आदमी के रूप में जानती है, जो अपने पड़ोसियों से पिटता रहता है। पश्चिम से हमने 'वैलेंटाइन डे' लिया है। अपनी मीडिया के साथ बड़े उत्साह से इस नए त्यौहार को मनाते हैं। अभी जून में 16 जून को शिवाजी का राज्यारोहण, 17 जून को लक्ष्मीबाई की शहादत और 18 जून को हल्दीघाटी दिवस बड़ी खामोशी से बीत गया। तीन तस्वीरों पर सिर्फ तीन मालाओं की दरकार थी। हमें राष्ट्रीय अस्मिता की परवाह नहीं है। अपनी औलादों के लिए राजनीतिक जमीन तलाशते नेताओं से भरे इस बाजार में आज कोई आईना बेचने वाला नहीं है।

[आर. विक्रम सिंह: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

Source : http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_5647832.html

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