रविवार, 17 अक्तूबर 2010

सरसंघचालक माननीय मोहन जी भागवत का विजयादशमी पर्व पर उधबोधन


सरसंघचालक श्री मोहनजी भागवत के विजयादशमी भाषण का सारांश

अश्विन शु.दशमी युगाब्द 5112 (17 अक्टूबर, 2010)

श्री रामजन्मभूमि न्यायिक निर्णयः एक शुभ संकेत

प्राचीन समय से अपने देश में धर्म की विजय यात्रा के प्रारम्भ दिवस के रूप में सोत्साह सोल्लास मनाये जानेवाला यह विजयदशमी का पर्व इस वर्ष संपूर्ण राष्ट्र केजनमन में, 30 सितंबर 2010 को श्री रामजन्मभूमि के विषय को लेकर मिले न्यायिक निर्णय से व्याप्त आनन्द की पृष्ठभूमि लेकर आया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ का यह निर्णय अंततोगत्वा श्रीरामजन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर के निर्माण का ही मार्ग प्रशस्त करेगा। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, विश्वभर के हिन्दुओं के लिए देवतास्वरुप होने के साथ-साथ इस देश की पहचान, अस्मिता, एकात्मता, स्वातंत्र्याकांक्षा तथा विजिगीषा के मूल में स्थित जो हम सभी की राष्ट्रीय संस्कृति है उसकी मानमर्यादा के प्रतीक भी हैं। इसीलिए हमारे संविधान के मूलप्रति में स्वतंत्र भारत के आदर्श, आकांक्षाएँ तथा परम्परा को स्पष्ट करनेवाले जो चित्र दिये हैं, उसमें मोहनजोदड़ो के अवशेष तथा आश्रमीय जीवन के चित्रों के पश्चात् पहला व्यक्तिचित्र श्रीराम का है। श्री गुरू नानक देव जी ने सन 1526 में समग्र भारत का भ्रमण करते हुए श्री रामजन्मभुमि के दर्शन किये थे। यह बात सिख पंथ के इतिहास में स्पष्ट उल्लिखित है। ऐतिहासिक, पुरातात्विक तथा प्रत्यक्ष उत्खनन के साक्ष्यों के आधार पर श्रीरामजन्मभूमि पर इ.स. 1528 के पहले कोई हिन्दू पवित्र भवन था, यह बात मान ली गई।

नियति द्वारा प्रदत्त शुभ अवसर

श्री रामजन्मभूमि संबंधित न्यायिक प्रक्रिया 60 वर्ष तक खींची जाने के कारण संपूर्ण समाज की समरसता में विभेद का विष व संघर्ष की कटुता व पीड़ा को घोलनेवाला, एक अकारण खड़ा किया गया विवाद समाप्त कर, अपनी राष्ट्रीय मानमर्यादा के प्रतीक मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या स्थित जन्मभूमि पर उनका भव्य मंदिर बनाने के निमित्त, हम सभी को बीती बाते भूलकर एकत्र आना चाहिए। यह निर्णय अपने देश के मुसलमानों सहित सभी वर्गों को आत्मीयतापूर्वक मिलजुलकर एक नया शुभारम्भ करने का नियति द्वारा प्रदत्त एक अवसर है यह संघ की मान्यता है। अपनी संकीर्ण भेदवृत्ति, पूर्वाग्रहों से प्रेरित हट्टाग्रह तथा संशयवृत्ति छोड़कर, अपने मातृभूमि की उत्कट अव्यभिचारी भक्ति, अपनी समान पूर्वज परंपरा का सम्मान तथा सभी विविधताओं को मान्यता, सुरक्षा व अवसर प्रदान करनेवाली, विश्व की एकमेवाद्वितीय, विशिष्ट,सर्वसमावेशक व सहिष्णु अपनी संस्कृति को अपनाकर, स्व. लोहिया जी के शब्दों में भारत की उत्तर दक्षिण एकात्मता के सृजनकर्ता श्रीराम का मंदिर जन्मभूमि पर बनाने के लिए हमे एकत्रित होना चाहिए। यही संपूर्ण समाज की इच्छा है। 30 सितंबर को निर्णय आने के पश्चात समाज ने जिस एकता व संयम का परिचय दिया वह इसी इच्छा को स्पष्ट करता है।

षड्यंत्रकारियों से सावधान

परन्तु राष्ट्रीय एकता के प्रयासों के लिए प्राप्त इस अवसर को भी तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के स्वार्थसाधन का हथियार बनाने की दुर्भाग्यपूर्ण चेष्टा, निर्णय के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ हुयी हम देखते है। पंथ, प्रान्त, भाषा की हमारी विविधताओं को आपस में लड़ाकर मत बटोरने वाले यही कुछ लोग, एक तरफ मुख से सेक्युलॅरिज्मका जयकारा लगाकर, बड़ी-बड़ी गोलमटोल बातों को करते हुए सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने के सूक्ष्म षड्यंत्र को रचते हुए सद्भाव निर्माण करनेवाले प्रसंगों व प्रयत्नों में बाधा डालते रहते हैं। माध्यमों व तथाकथित बुद्धिजीवियों में भी अपने भ्रामक विचार का अहंकार पालनेवाले, हिन्दू विचार व हिन्दू के लिए चलनेवाले प्रयासों के पूर्वाग्रहग्रसित द्वेष्टा, व अपने स्वार्थों व व्यापारिक हितों के लिए सत्य, असत्य की परवाह न करते हुए न भयं न लज्जाऐसा व्यवहार करनेवाले कुछ लोग हैं। 30 सितम्बर को दोपहर 400 बजे तक की इनकी भाषा तथा निर्णय आने के पश्चात् की भाषा व व्यवहार का अंतर देखेंगे तो यह बात आप सभी के ध्यान में आ जायेगी। समाज के विभिन्न वर्गों में एक दूसरे के प्रति अथवा एक दूसरे के संगठनों के प्रति भय व अविश्वास का हौवा खड़ा करने का उनका काम सदैवसेक्युलॅरिज्मका चोला ओढ़कर, कुटिल तर्कदुष्टता से चलता रहता है। इन सभी से सदा ही सावधान रहने की आवश्यकता है। अपने स्वार्थ को साधने के लिए विश्वबंधुत्व, समता, शोषणमुक्ति आदि बड़ी-बड़ी बातों की आड़ में समाज में इन बातों को अवतीर्ण होने से इन्ही लोगों ने रोका है।

इसी स्वार्थकामना व विद्वेष के चलते कुछ आतंक की घटनाओं में कुछ थोड़े से हिन्दू व्यक्तियों की तथाकथित संलिप्तता को लेकर हिन्दू आतंकवाद’ ‘भगवा आतंकवादजैसे शब्दप्रयोग प्रचलित करने का देशघाती षड्यंत्र चलता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। उसमें संघ को भी गलत नियत से घसीटने का दुष्ट प्रयास हो रहा है। असत्य के मायाजाल में जनता को भ्रमित करने की तथा हिन्दू संत, सज्जन, मंदिर व संगठनों को बदनाम करने की यह कुचेष्टा किनके इशारे पर चल रही है व किनको लाभान्वित कर रही है इसको जानने का हमने प्रयत्न नहीं किया है। परंतु यह किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर अपने राष्ट्र को अपकीर्ति व आपत्ति में डालेगी यह निश्चित है।

अपने देश के संविधान सम्मत राष्ट्रध्वज के शीर्षस्थान पर विराजमान त्याग, कर्मशीलता व ज्ञान के प्रतीक भगवे रंग को; स्वयं आतंकी प्रवृत्तियों से मुक्त रहकर, आतंक से संघर्षरत हिन्दू समाज व संतों, साध्वियों को; भारत देश को; प्रत्येक प्राकृतिक आपदा में तथा आतंक व युद्ध जैसे मानवनिर्मित संकटों में शासन-प्रशासन का प्राणपण से सहयोग करनेवाले, 1 लाख 57 हजार के ऊपर छोटे-बड़े सेवा केन्द्र देश की अभावग्रस्त जनता के लिए बिना किसी भेदभाव अथवा स्वार्थ के उद्देश्य से चलानेवाले स्वयंसेवकों को, संघ को व अन्य संगठनों को कलंकित करने की यह चेष्टा असफल ही होगी। न्यायालयों के अभियोगों के निर्णयों के पूर्व ही माध्यम-अभियोगों के सूचनाभ्रम-तंत्र [disinformation campaign via media trial]का उपयोग संघ के विरुद्ध करने के पूर्व अपने कलंकित गिरेबान में झाँकने का प्रयास ये शक्तियाँ करके देखें। ये लोग अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए भगवा आतंकशब्द का प्रयोग करके भारत की श्रेष्ठ परंपरा और सभी संत महात्माओं का अपमान करने से भी बाज नहीं आ रहे है। यह समय देश को अपने क्षुद्र व घृणित चुनावी षड्यंत्रों में उलझानें का नहीं है।

कश्मीरः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बिसात

कश्मीर में संकट गंभीर व जटिलतर बन गया है। हमारी उपेक्षा के कारण बाल्टिस्तान व गिलगिट पाकिस्तान के अंग बन गये और चीन ने अपनी सेना की उपस्थिति वहाँ दर्ज कराते हुए भारत को घेरने का कार्य पूर्ण कर लिया है। अफगानिस्तान से बाइज्जत व सुरक्षित स्थिति में भागकर पाकिस्तान को अपने साथ रखते हुए कश्मीर घाटी में अपने पदक्षेप के अनुकूल स्थिति बनाने के लिए अमरीका बढ़ रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की यह बिसात घाटी में बिछ जाने के पहले ही हमारी पहल होनी चाहिए। अफगानिस्तान में अपने हितों के अनुकूल वातावरण को बनाते हुए, घाटी की परिस्थितियाँ हमे शेष भारत के साथ सात्मीकरण की ओर मोड़नी ही पड़ेगी। किसी भी केन्द्र सरकार का अपने देश के अविभाज्य अंगों के प्रति यह अनिवार्य कर्तव्य होता है। भारत की सार्वभौम प्रभुसत्तासंपन्न सरकार को अलगाववादी तत्वों के द्वारा कराये गये प्रायोजित पथराव के आगे झुकना नहीं चाहिए। सेना के बंकर्स हटाने से व उसके अधिकार कम करने से वहाँ भारत की एकात्मता व अखण्डता की रक्षा नहीं होगी। संसद के वर्ष 1994 में सर्वसम्मति से किये गये प्रस्ताव में व्यक्त संकल्प ही अपनी नीति की दिशा होनी चाहिए। हमें यह सदैव स्मरण रखना है कि महाराजा हरिसिंह के द्वारा हस्ताक्षरित विलयपत्र के अनुसार कश्मीर का भारत में विलीनीकरण अंतिम व अपरिवर्तनीय है।

जम्मू-कश्मीर की सब जनता अलगाववादी नहीं

जम्मू व कश्मीर राज्य में केवल कश्मीर घाटी नहीं है। और उसमें भी स्वायतत्ता की माँग करने वाले व उसकी आड़ में अलगाव को बढ़ावा देकर आजादी का स्वप्न देखने वाले लोग तो बहुत थोड़े ही है। अतः केवल इन अलगाववादी समूहों व उनके नेतृत्व को ही विभिन्न वार्ताओं के माध्यम से मुख्य रूप से सुनना व प्रश्रय देना समस्या को सुलझाने की बजाय उसे और अधिक उलझाने का ही कारण बनता दिख रहा है। अतः हमें घाटी के साथ-साथ जम्मू एवं लद्दाख की कठिनाइयों व उनके साथ सालों से चले आ रहे भेदभाव के बारे में भी गम्भीरता से विचार करना होगा। घाटी में अलगाववादी तत्वों के बहकावे में आ गये नौजवानों एवं सामान्य जनता से बात अवश्य ही होनी चाहिए। पर इसके साथ ही समूचे जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रवादी सोच के मुसलमानों, गुज्जर-बक्करवालों, पहाड़ियों, शियाओं, सिक्खों, बौद्धों, कश्मीरी पण्डितों एवं अन्य हिन्दुओं की भावनाओं, आवश्यकताओं व आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है। साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर से आये शरणार्थियों की लम्बे समय से चली आ रही न्यायोचित माँगों पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। अपने गाँव व घरों से उजड़े कश्मीरी पण्डितों को ससम्मान, अपनी सुरक्षा व रोजगार के प्रति पूर्ण आश्वस्त हो कर शीघ्रातिशीघ्र घाटी में उनकी इच्छानुसार पुनः स्थापित कराया जाना चाहिए। ये सब भारत के साथ सम्पूर्ण सात्मीकरण चाहते हैं। अतः इन सब की सुरक्षा, विकास व आकांक्षाओं का विचार जम्मू-कश्मीर समस्या के सम्बन्ध में होना ही चाहिए। इन सब पक्षों का विचार करने पर ही जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में चलायी जाने वाली वार्तायें सर्वसमावेशी और फलदायी हो सकेगी।

स्वतंत्रता के तुरन्त बाद से ही जम्मू व काश्मीर की प्रजा भेदभाव रहित सुशासन व शांति की भूखी है। वह उनको शीघ्रातिशीघ्र मिले ऐसे सजग शासन व प्रशासन की व्यवस्था वहां हो यह आवश्यक है।

चीनः एक गम्भीर चुनौती

तिब्बत में अपनी बलात् उपस्थिति को वैध सिद्ध करने के चक्कर में तिब्बत समस्या की तुलना कश्मीर से करनेवाला चीन अब गिलगिट व बाल्टिस्थान में प्रत्यक्ष उपस्थित है। जम्मू व कश्मीर राज्य तथा उत्तरपूर्वांचल के नागरिकों को चीन में प्रवेश करने के लिए वीसा की आवश्यकता नहीं ऐसा जताकर उसने भारत के अंतर्गत मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया है। चीन के उद्देश्यों के मामले में अब किसी के मन में कोई भ्रम अथवा अस्पष्टता रहने का कोई कारण नहीं रहना चाहिए। उन उद्देश्यों को लेकर भारत को घेरने, दबाने व दुर्बल करने के चीन के सामरिक, राजनयिक व व्यापारिक प्रयास भी सबकी आँखों के सामने स्पष्ट है। उस तुलना में हमारी अपनी सामरिक, राजनयिक व व्यापारिक व्यूहरचना की सशक्त व परिणामकारक पहल, शासन की इन मामलों में सजगता, समाज मन की तैयारी इन पर त्वरित ध्यान देने की कृति होने की आवश्यकता है। इसमें और विलंब देश के लिए भविष्य में बहुत गंभीर संकट को निमंत्रण देने वाला होगा।

नक्सली आतंक

चीन के समर्थन से नेपाल में माओवादियों का उपद्रव खड़ा हुआ व बड़ा हुआ। नेपाल के उन माओवादियों का अपने देश के माओवादी आतंक के साथ भी संबंध है। उनका दृढ़तापूर्वक बंदोबस्त करने के बारे में अभी शासन अपनी ही अंदरुनी खींचतान में उलझकर रह गया है। प्रशासन को पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाना, माओवादी प्रभावित अंचलों में विकासप्रक्रिया को गति देना इसके भी परिणामकारक प्रयास नहीं दिखते। कहीं-कहीं तो इस समस्या का भी अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए साधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। देश की सुरक्षा व प्रजातंत्र के लिए यह बात बहुत महंगी पडेगी।

उत्तरपूर्वांचलः देशभक्त जनता की उपेक्षा

उत्तरपूर्वांचल के संदर्भ में भी यह बात महत्वपूर्ण है। वहाँ पर भी अलगाववादी स्वरों को प्रश्रय मिलता है व देश के प्रति निष्ठा रखनेवालों की उपेक्षा होती है। इसी नीति के कारण जनसमर्थन खोकर मृतप्राय बनते चले N.S.C.N. जैसे अलगाववादी आतंकी संगठन को फिर से पुनरुज्जीवित होकर अपने आतंक व अलगाव सहित खड़े होने का अवसर मिला। उत्तरपूर्व सीमा के रक्षक बनकर चीन के आह्वान को झेलने की हिम्मत दिखानेवाले अरुणाचल की उपेक्षा ही चल रही है। मणिपुर की देशभक्त जनता तो उन अलगाववादियों द्वारा किये गये प्रदीर्घ नाकाबंदी में जीवनावश्यक वस्तुओं के घोर अभाव में तड़पती, राहत के लिए गुहार लगाते-लगाते थक गयी, निराशा के कारण प्रक्षुब्ध हो गयी। अपनी ही देश की देशभक्त जनता की उपेक्षा व अलगाववादियों की बिना कारण खुशामद चीन के विस्तारवादी योजनाओं की छाया में देश की सीमाओं की सुरक्षा की स्थिति को कितना बिगाड़ेगी इसकी कल्पना क्या हमारे नेतागण नही कर सकते? विदेशी ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों एवं उपद्रवों के प्रति लगातार बरती जा रही उपेक्षा ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया है।

अनुनय की राजनीतिः एक गंभीर खतरा

एक तरफ तो शासन प्रशासन का यह अंधेरनगरी के राजा को ही शोभा देनेवाला इच्छाशक्तिविहीन ढुलमुल रवैय्या, दूसरी तरफ स्वतंत्रता के 60वर्षों के बाद भी सच्छिद्र रखी गयी सीमाओं से निरंतर चलनेवाली बांगलादेशी घुसपैठ का क्रम। न्यायालयों तथा गुप्तचर एजेंसियों के द्वारा बार-बार दी गयी detect, delete, and deport की राय के बावजूद, उसके प्रथम चरण detect तक की कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति व दृढ़ता चुनावों में मतों की प्राप्ति के लिए अनुनय में किसी भी स्तर तक उतर सकने वाले हमारे राज्यों के व केन्द्रों के नेताओं ने खो दी है, ऐसा ही चित्र सर्वत्र दिखता है। उत्तरपूर्वांचल के राज्यों व बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में जनसंख्या का चित्र बदल देनेवाली इस घुसपैठ ने वहाँ पर कट्टरपंथी सांप्रदायिक मनोवृत्ति को बढ़ाकर वहाँ की मूलनिवासी जनजातियाँ व हिन्दू जनता को प्रताड़ित करनेवाली गुंडागर्दी व अत्याचारी उपद्रवियों की उद्दंडता व दुःसाहस को और प्रोत्साहित किया है। हाल ही में बंगाल के देगंगा में हिन्दू समाज पर जो भयंकर आक्रमण हुआ, वह इन सीमावर्ती प्रदेश में देशभक्त हिन्दू जनता पर गत कुछ वर्षों से जो कहर बरसाया जा रहा है उसका एक उदाहरण है। न वहाँ के राज्य शासन को, न केन्द्र में सत्तारूढ़ नेताओं को हिन्दू जनता के इस त्रासदी की कोई परवाह है। सबकी नजर अपने मतस्वार्थों पर ही पक्की गड़ी है। अंतर्गत कानून,सुव्यवस्था तथा हिन्दुओं की सुरक्षा का सीमावर्ती जिलाओं में टूटना हमारी सीमासुरक्षा को भी ढीला करता है इसका अनुभव शासन-प्रशासन सहित सभी को कई बार देश में सर्वत्र आ चुका है फिर भी यह स्थिति है।

शंका तो यहॉं तक आती है की इस बात की चिंता भी शासन वास्तविक रूप में करता है कि नहीं? जिस ढंग से इस बार की जनगणना में बिना किसी प्रमाण के, केवल बतानेवाले का कथनमात्र प्रमाण मानकर साथ-साथ ही नागरिकता की भी निश्चिति का प्रावधान किया उससे तो अपने देश में अवैध घुसा कोई भी व्यक्ति नागरिक बन जाता। अब सभी नागरिकों को विशिष्ट पहचान क्रमांक [unique Identification number] मिलनेवाला है। परंतु पहचान क्रमांक प्राप्त करनेवाले वास्तव में इसी देश के नागरिक है यह प्रमाणित करने की क्या व्यवस्था है? योजनाओं के बनाते समय इन सजगताओं को बरतने में ढिलाई अथवा भूलचूक नहीं होनी चाहिए।

जन्मना जातिविरहित समाज की रचना का दावा करते है तो फिर एक देश के एक जन की गणना में जाति पूछकर फिर एक बार उसका स्मरण दिलानेवाली योजना क्यों बनी? एकरस समाजवृत्ति उत्पन्न करने के लिए अपनी जाति हिन्दू, हिन्दुस्थानी अथवा भारतीय लिखो, बोलो, मानो ऐसा आवाहन देश के गणमान्य विद्वान व सामाजिक कार्यकर्ता कर रहे हैं, तब देश में भावनात्मक एकता लाने के लिए कर्तव्यबद्ध शासन उनका विरोध करते हुये तथा एक-एक नागरिक से उनकी जाति गिनवायेगा क्या? नियोजन के लिये आंकड़ों का संकलन करनेवाली किसी अलग, स्वतंत्र,तात्कालिक व मर्यादित व्यवस्था का निर्माण करना सरकारी क्षमता के बाहर नही है।

करनी और कथनी में अंतर्विरोध

देश को कहाँ ले जाने की हमारी घोषणाएँ है और हम उसको कहां ले जा रहे हैं। अपने देश के जिस सामान्य व्यक्ति के आर्थिक उन्नयन की हम बात करते हैं, वह तो कृषक है, खुदरा व्यापारी, अथवा ठेले पर सब्जी बेचनेवाला, फूटपाथ पर छोटे-छोटे सामान बेचनेवाला है, ग्रामीण व शहरी असंगठित मजदूर, कारीगर, वनवासी है। लेकिन हम जिस अर्थविचार को तथा उसके आयातित पश्चिमी मॉडेल को लेकर चलते हैं वह तो बड़े व्यापारियों को केन्द्र बनाने वाला, गाँवों को उजाड़नेवाला, बेरोजगारी बढ़ानेवाला, पर्यावरण बिगाड़कर अधिक ऊर्जा खाकर अधिक खर्चीला बनानेवाला है। सामान्य व्यक्ति, पर्यावरण, ऊर्जा व धन की बचत, रोजगार निर्माण आदि बातें उसके केन्द्र में बिल्कुल नहीं है।

एक तरफ हम सबके शिक्षा की बात करते हैं, दूसरी तरफ शिक्षा व्यवस्था का व्यापारीकरण करते हुए उसको गरीबों के लिए अधिकाधिक दुर्लभ बनाते चले जाते हैं। मानवीय भावना, सामाजिक दायित्वबोध, कर्तव्यतत्परता, देशात्मबोध अपने समाजजीवन में प्रभावी हो ऐसा उपदेश शिक्षा संस्थाओं में जाकर हम देते हैं और इन मूल्यों को संस्कार देनेवाली सारी बातों को निकाल बाहर कर पैसा, अधिक पैसा और अधिक पैसाकिसी भी मार्ग से कमाने में ही जीवन की सफलता मानकर, निपट स्वार्थ, भोग तथा जड़वाद सिखानेवाला पाठ्यक्रम व पुस्तकें लागू करते है। कथनी व करनी के इस अन्तर्विरोध के मूल में अपने देश की वास्तविक पहचान, राष्ट्रीयता, वैश्विक दायित्व तथा एकता के सूत्र का घोर अज्ञान, अस्पष्टता अथवा उसके प्रति गौरव का अभाव तथा स्वार्थ व विभेद की प्रवृत्ति है। सभी क्षेत्रों में राष्ट्र के नेतृत्व करनेवाले लोगों में उचित स्वभाव हों, उचित चरित्र हो, उचित प्रवृत्ति बनी रहे, कभी उसमें भटकाव न आये यह चिन्ता सजगता से करनेवाला जागृत समाज ही इस परिस्थिति का उपाय कर सकता है।

हिन्दुत्वः अनिवार्य आवश्यकता

गत 85 वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही समाज की निर्मिती के लिए सुयोग्य व्यक्तियों के निर्माण में लगा है। अपने इस सनातन राष्ट्र की विशिष्ट पहचान, देश की अखंडता व सुरक्षा का आधार, समाज की एकात्मता का सूत्र तथा पुरुषार्थी उद्यम का स्रोत, तथा विश्व के सुख शांतिपूर्ण जीवन की अनिवार्य आवश्यकता हिन्दुत्व ही है, यह अब सर्वमान्य है और अधिकाधिक स्वतःस्पष्ट होते जा रहा है। अढ़ाई दशक पहले श्री विजयादशमी उत्सव के इसी मंच से संघ के उस समय के पू. सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के इस कथन को कि - भारत में पंथनिरपेक्षरता, समाजवाद व प्रजातंत्र इसीलिए जीवित है क्योंकि यह हिन्दुराष्ट्र है’, आज श्री एम.जे अकबर व श्री. राशिद अलवी जैसे विचारक भी लिख बोल रहे हैं। सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है। हिन्दुत्व के इस व्यापक, सर्वकल्याणकारी, व प्रतिक्रिया तथा विरोधरहित पवित्र आशय को मन-वचन-कर्म से धारण कर इस देश का पुत्ररूप हिन्दु समाज खड़ा हो। निर्भय एवं संगठित होकर अपनी पवित्र मातृभूमि भारतमाता, उज्ज्वल पूर्वज-परंपरा तथा सर्वकल्याणकारी हिन्दू संस्कृति के गौरव की घोषणा करें यह आज की महती आवश्यकता ही नही, अनिवार्यता है। स्वार्थ और भेद के कलुष को हटाकर परमवैभवसंपन्न, पुरूषार्थी दिग्विजयी भारत के निर्माण के लिए सब प्रकार के उद्यम की पराकाष्ठा करें। संपूर्ण विश्व को समस्यामुक्त कर सुखशांति की राह पर आगे बढ़ाये। सब प्रकार की विकट परिस्थितियों का यशस्वी निरसन करने का यही एकमात्र, अमोघ, निश्चित व निर्णायक उपाय है।

इसलिए नित्य शाखा की साधना के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को हिन्दुत्व के संस्कारों तथा गौरव से परिपूरित कर, निःस्वार्थ व भेद तथा दोष से रहित अंतःकरण से तन-मन-धन पूर्वक देश, धर्म, संस्कृति व समाज के लिए जीवन का विनियोग करने की प्रेरणा व गुणवत्ता देकर, सम्पूर्ण समाज को संगठित व शक्तिसंपन्न स्थिति में लाने का संघ का कार्य चल रहा है। पूर्ण होते तक इस कार्य को करते रहने के अतिरिक्त संघ का और कोई प्रयोजन अथवा महत्वाकांक्षा नहीं है। केवल आवश्यक है, इस पवित्र कार्य को समझकर, उसे अपना कार्य मानकर आप सभी सहयोगी भाव से इसमें जुट जायें। यही आपसे विनम्र अनुरोध तथा हृदय से आवाहन है


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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित