गुरुवार, 3 नवंबर 2011

क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है? - श्री अश्वनी कुमार , पंजाब केसरी

श्री अश्वनी कुमार जी, पंजाब केसरी

पहले तीन अंक के सम्पादकीय



जीवन में कभी-कभी अतीत की गहराई में झांकना बड़ा ही अच्छा लगता है और सुखप्रद भी। यहां यह बात मैं राष्ट्रों के अतीत के संदर्भ में कह रहा हूं। भारतवर्ष के जिस तंत्र में हम रह रहे हैं और मूर्खतावश जिसे 'प्रजातंत्र' कहते हैं वह आजादी के पांच दशकों बाद कैसा सिद्ध हुआ है, इस पर यहां मैं टिप्पणी नहीं करना चाहता।
मैं त्रेतायुग के काल से इस राष्ट्र की विभिन्न शासन प्रणालियों का अध्ययन पिछले दिनों कर रहा था। इसी क्रम में कुछ ऐसे तथ्यों की जानकारी मिली जिन्हें न केवल मैं पाठकों के साथ सांझा करना चाहता हूं, अपितु मेरी मंशा है कि हम कुछ बातों की प्रासंगिकता आज के युग में भी जानें। यह बात सत्य है कि श्रीराम को परिस्थितिवश बनवास जाना पड़ा, फिर भी ज्येष्ठ दशरथनंदन होने के नाते महाराज दशरथ यह देखकर चिंतित थे कि श्रीराम चिंता में हैं। कुछ प्रश्र उनके मन में उमड़-घुमड़ कर आते हैं और उन्हें व्यथित कर जाते हैं। यथासमभव उन्होंने स्वयं भी उनका निराकरण किया और बाद में महर्षि वशिष्ठ को विस्तार से सारी बात बताई। श्रीराम और महर्षि वशिष्ठ में एक लंबा वार्तालाप हुआ। आज परम सौभाग्य की बात यह है कि इन सभी वार्तालापों सपूर्ण वृतांत 'योग वशिष्ठ’मूलत: संस्कृत में उपल4ध ग्रंथ तो है ही, उसके कुछ अच्छे भाष्य भी उपलबध हैं।
आज इसे धार्मिक ग्रंथ की संज्ञा दी जाती है। योगशास्त्र का अद्भुत ग्रंथ भी माना जाता है, वैराग्य की भी बहुत सी बातें इसमें हैं परन्तु एक राजा का क्या कर्तव्य होना चाहिए, उसमें ऐसा सब कुछ निहित है। 'योग वशिष्ठ अनुपम है किसी अन्य कृति से इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
ठीक इसी प्रकार महाभारतकाल में एक अंधे राजा ने जब यह देखा कि उसकी विदुषी पत्नी ने भी आंखों पर पट्टी बांध ली और सारे के सारे राजकुमार नालायक निकल गए तो उस राजा ने विदुर जी को निमंत्रण दिया।
एक छोटा परन्तु बड़ा सारगर्भित ग्रंथ प्रकट हुआ। हम उसे कहते हैं-विदुर नीति।
भावी घटनाएं कुछ और थीं, वरना धृतराष्ट्र का यह प्रयास स्तुत्य था।
अब शिवाजी राजे की बात।
भारतवर्ष में हिन्द-पद-पादशाही का स्वप्न पूरा हुआ। शिवाजी महाराज को दिव्य निर्देश तो मिले, परन्तु उससे पहले एक अद्भुत कृति का प्राकट्य हुआ.
उसका नाम है-दास बोध। मनुष्य को स्वयं को अपनी पूर्णता में समझ पाने की वह अद्भुत कृति है। उसका आशय क्या है, क्या आप जानना चाहेंगे। आशय है :
'इक बहाना था जुस्तजु तेरी
दरअसल थी, मुझे खुद अपनी तलाश।
दास बोध अद्भुत है। समर्थ गुरु रामदास जी ने अपने प्रिय शिष्य शिवा की झोली में 'दास बोध डाला और शिवाजी ने समस्त राजपाट उन्हें समर्पित कर दिया और 'राजध्वज को भगवे में रंग दिया और नारा लगा 'जय-जय-जय रघुवीर समर्थ।
इस शृंखला में कौटिल्य को कैसे भूलें।
अर्थशास्त्र का एक-एक वचन चीख-चीख कर कह रहा है कि इससे उत्कृष्ट रचना पिछले हजारों वर्षों में नहीं रची गई। योग वशिष्ठ, विदुर नीति, दास बोध और अर्थशास्त्र, सब कुछ हमारे पास था, फिर भी हम सदियों गुलाम रहे क्योंकि हम अपनी जड़ों से कट गए।
आज इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। जिस राह पर हम चल रहे हैं वह सिवाय 'विध्वंस के हमें कहां ले जाएगी?
कारण क्या है? कारण एक ही है कि 'गोरे अंग्रेजों’ के हाथ से निकल कर राष्ट्र काले अंग्रेजों के हाथ में चला गया। यह सारे के सारे 'मैकाले’ के मानसपुत्र थे। इन्होंने भारत को इसकी जड़ों से काट दिया।
'धर्मनिरपेक्षता’ नामक शब्द भारत के माथे पर कोढ़ बनकर उभरा। यह आज भी इस राष्ट्र के लिए कलंक है। धर्म के प्रति न तो आज तक कोई निरपेक्ष हो सका है और न ही भविष्य में होगा क्योंकि धर्म चेतना का विज्ञान है, अत: यह हमेशा एक ही रहता है, दो नहीं हो सकता।
क्षमा, दया, शील, सच्चरित्रता यह धारण करने योग्य हैं, अत: जो इन्हें धारण करता है वही धार्मिक है, जो निरपेक्ष है, वह बेईमान है। अपने संस्कारों को अक्षुण्ण रखते हुए धार्मिक रहा जा सकता है।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा-
'स्वधर्मे निधनं श्रेयम्।’
इसका एक ही आशय है, अपनी निजता न खोओ।
अपने धर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है। ढोंगी न बनो। ढोंगी को तो नरक में भी जगह नहीं मिलती। भारत में सर्वधर्म समभाव के प्रणेता प्रकट हो गए। राजनीति ने ऐसा कलुष पैदा किया। भगवान कृष्ण ने कहा-अपना धर्म श्रेष्ठ, परन्तु किसी की विचारधारा का अनादर न करो। इन बेइमान पाखंडियों को देखो, जो सवेरे मजारों पर चादर चढ़ाते हैं, दोपहर को मंदिरों में जाते हैं, शाम को चर्चों में जाकर भाषण देते हैं तथा रात में गुरुद्वारे जाकर सिरोपा लेते हैं।
ऐसा लगता है, इन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया?
सावधान! ये पहले दर्जे के पाखंडी हैं। यह ढोंग कर रहे हैं, जो राजनेता परमहंसों जैसा आचरण करे उसे क्या कहेंगे?
भारत के एक राज्य कश्मीर से चुन-चुन कर 'हिन्दुओं’ को खदेड़ दिया गया था। यह राष्ट्र का बहुसंख्यक समाज है, यह अपने अभिन्न अंग में नहीं रह सकता। इनकी रक्षा का प्रबंध यह सरकार नहीं कर सकी क्योंकि सारी की सारी सरकारें 'धर्मनिरपेक्ष’ हैं और पंडितों के लिए न्याय मांगने वाले सांप्रदायिक करार दिए जाते रहे।
'गर सच कहना बगावत है, तो समझो हम भी बागी हैं।’
इस समपादकीय में मैं बहूत सारे सवाल उठाऊंगा। इतिहास के कुछ पन्नों का सहारा लेकर अपनी बात को स्पष्ट करूंगा कि इस हिन्दुस्तान में हिन्दुओं से कैसा व्यवहार होता रहा है। सिर्फ आज वोट बैंक की राजनीति की जा रही है। वोटों की खातिर अल्पसंख्यको के तुष्टीकरण की नीतियां जारी हैं। आज मनमोहन सरकार कठघरे में खड़ी है और इतिहास का काल पुरुष सरकार से पूछता है-क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है?


कल मैंने सवाल उठाया था कि क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है? इस सवाल का जवाब अधिकांश लोग हां में देते हैं। आखिर ऐसी सोच क्यों पैदा हुई? भारत विश्व के दृश्यपटल पर सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष देश है। यह ऐसा धर्मनिरपेक्ष है, जैसी धर्मनिरपेक्षता होनी बड़ी मुश्किल है। जो नई नस्लें हैं, उन्हें क्या मालूम कि हम क्या चीज हैं। भारत आजाद हुआ, इसके लिए बाकायदा इंडियन इंडीपैंडैंस एक्ट बना, पाकिस्तान वजूद में आ गया। अंग्रेजों ने उन्हें कश्मीर नहीं दिया था। उसे हमारे साथ महाराजा हरि सिंह ने विलय किया था। ऐसा विलय ५४२ रियासतों ने पहले ही कर दिया था। सबकी बात हमने सुनी, मानी परन्तु कश्मीर में घुंडी अड़ गई। यह अनोखी धर्मनिरपेक्षता थी। शेख और महाराजा के अच्छे संबंध नहीं थे। महाराजा ने उन्हें राजद्रोह के आरोप में कैद कर रखा था जबकि पंडित नेहरू और महाराजा के संबंध भी अच्छे नहीं थे। महाराजा की नजरों में नेहरू की चारित्रिक समग्रता संदिग्ध थी। शेख अबदुल्ला तिलमिला उठे। वह बाहर आए, नेहरू से मिले और शेख ने चाल चल दी। २७ अक्तूबर, १९४७ को पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया। यह एक पूर्ण रूप से सुनियोजित षड्यंत्र था। भयंकर मारकाट हुई। महाराजा ने अपनी रियासत को भारत के हक में विलयन के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। श्रीनगर तो बच गया, परन्तु हमारा २/५ भाग पाकिस्तान ने जबरदस्ती हथिया लिया। पाकिस्तान की बलात्कारी फौज को जवाब देने के लिए हमारी सेना पहुंच चुकी थी। घनसारा सिंहऔर ब्रिगेडियर परांजपे मौजूद थे। छह घंटे के अन्दर हमारा भूभाग वापस आ सकता था, परन्तु सेना का नियंत्रण और उसे आगे बढऩे का अधिकार केवल शेख के हाथ में विशेष आदेश के द्वारा नेहरू ने दे रखा था।

कारण था हमारी धर्मनिरपेक्षता।

सवाल भारतीयता का नहीं धर्मनिरपेक्षता का था। महाराजा हरि ङ्क्षसह रोते रहे, हमने अपना भू-भाग गंवा दिया और मामला संयुक्त राष्ट्र तक जा पहुंचा।

हम अपनी सरजमीं से विशाल सेना होते हुए भी दुश्मन को खदेड़ नहीं सके। हमारी धर्मनिरपेक्षता आड़े आ गई। मामला संयुक्त राष्ट्र में लटक गया।

पाकिस्तान ने हमारे भू-भाग का १३ हजार वर्ग किलोमीटर २ मार्च, १९६३ को चीन को दान कर दिया। सीमा निर्धारण के बहाने किये गए इस कुकृत्य पर बतौर विदेश मंत्री भुट्टो ने हस्ताक्षर कर दिए और उधर चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री चेन यी ने दस्तखत किए। इसी को कहते हैं 'माल महाराज का मिर्जा खेले खोली’। माल किसी का था और कमाल कौन कर रहा था। जब पंडित नेहरू पर दबाव पड़ा तो उन्होंने मगरमच्छी आंसुओं से भरा एक भाषण लोकसभा में ५ मार्च, १९६३ को दिया था।

यह एक 'धर्मनिरपेक्ष और ढोंगी’ प्रधानमंत्री की तकरीर थी। रो रहे थे कि हम क्या करें, अभी समय विपरीत है, हमने अपना 'प्रोटैस्ट’ कर दिया है। कांग्रेसी बंधु इसे पढ़ें और अपना सिर पीटें।

नेहरू रोते क्यों न? १९६२ के युद्ध में उन्होंने हमारी दुर्गति करवा दी। चीन के नाम से रूह कांप रही थी। इसकी सारी दास्तां तब ले. जनरल वी.एम. कौल ने अपनी किताब Untold Story में बयान कर दी। उसे भी आज पढ़ा जाना चाहिए लेकिन किसे फिक्र है जो इन दस्तावेजों में जाए? नेहरू का १९६४ में निधन हो गया।

१९६५ में पाकिस्तान ने हम पर आक्रमण कर दिया। तब तक लाल बहादुर शास्त्री की कृपा से हम में बड़ा गुणात्मक फर्क आ गया था। हमने पाकिस्तान को दिन में तारे दिखवा दिए। हमारी सेनाएं लाहौर तक जा पहुंचीं। उन्होंने कच्छ के रण में हमारा एक हिस्सा कब्जे में ले लिया। पाकिस्तान ने चाल चली। हमारे परममित्र कोसीजिन से मिलकर अयूब ने ताशकंद में समझौता किया। हमने उनका सारा भूभाग छोड़ दिया, उन्होंने कच्छ में आज तक हमारी जमीन न छोड़ी। क्यों? हमने धर्मनिरपेक्ष तरीके से इसका प्रौटेस्ट किया। १९७१ में फिर वही तारीख दुहराई गई।

हम चाहते तो शिमला समझौता में अपना कश्मीर वापस ले सकते थे, पर इंदिरा जी की धर्मनिरपेक्षता आड़े आ गई। तब से लेकर आज तक कश्मीर जल रहा है। आज एक धर्मनिरपेक्ष सरकार हमारे देश में वजूद में आ गई है लेकिन इन ३०-३२ वर्षों में कश्मीर में 1या हुआ इसका हाल सुनें। कश्मीर घाटी से २.१४ गुना क्षेत्रफल ज6मू का है। कश्मीर घाटी से ४.३५ गुना क्षेत्रफल लद्दाख का है। उस राज्य की ९० प्रतिशत आय ज6मू और लद्दाख से है। १० प्रतिशत घाटी से है। सम्पूर्ण आय का ९० प्रतिशत हिस्सा घाटी में खर्च किया जाता है। कारण क्या है? हमें इस बात का मलाल नहीं कि ३ लाख हिन्दू 1यों निकाल दिए गए। हमें यह मलाल नहीं कि बौद्धों के साथ क्या हो रहा है। पर हमें इस बात की सबसे ज्यादा फिक्र है कि-

वहां दो नागरिकताएं कायम रहें।
अनुच्छेद ३७० कभी न हटे।
भारत का संविधान लागू न हो।
वहां कोई जमीन न खरीद सके।
भारत का कानून लागू न हो।
वहां की बेटी भारत में कहीं शादी करे तो नागरिकता खो बैठे, और पाकिस्तान में करे तो वह यहां का नागरिक हो जाए।
जम्मू-कश्मीर की स्वयातात्त्ता प्रस्ताव हमारी सरकार के पास है। अगर हमारी सरकार की धर्मनिरपेक्षता ने फिर जोर मारा, तो हम सिर्फ 'अभिन्न अंग’ रह जाएंगे, और हमारा प्यारा कश्मीर De-Facto पाकिस्तान हो जाएगा और हमारे पास De-Jure कश्मीर ही रहेगा। हम तब इस अभिन्न अंग को गाएंगे, गुनगुनाएंगे, ओढ़ेंगे, बिछाएंगे और चरखे के गुण गाएंगे। जय बापू की-जय गांधी की।
अफसोस! एक अरब २५ लाख लोगों का यह मुल्क इतना मोहताज हो गया कि प्राचीन गौरव और परम्परायें भूल गया। धिक्कार है इस राष्ट्र के धरती पुत्रों पर।
मानसिक रूप से इस राष्ट्र को 'निर्णायक जंग’ के लिए तैयार करना होगा।
''जब किसी जाति का अहं चोट खाता है।
पावक प्रचंड होकर, बाहर आता है।
यह वही चोट खाए स्वदेश का बल है।
आहत भुजंग है, सुलगा हुआ अनल है. ‘

इस देश में हमेशा षड्यंत्र के तहत हिन्दुओं की आस्था पर करारी चोट की जाती रही है। हिन्दुओं के आस्था स्थलों की पहचान और हिन्दुओं के आराध्य देवों का अपमान किया जाता रहा है। पहले तो अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में इतिहास से छेड़छाड़ की और हिन्दुओं को पिछड़े, भ्रष्ट, कायर और दकियानूसी, पाखंडी तथा जातिवादी सिद्ध करने का प्रयास किया। मुस्लिम आक्रांताओं के काले कारनामों पर पर्दा डाला गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी कांग्रेस के अनेक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं और वामपंथियों ने इतिहास को विकृत करने का प्रयास किया।

श्रीमती इंदिरा गांधी ने वामपंथी विचारधारा के डा. नुरुल हसन को केन्द्रीय शिक्षा राज्य मंत्री का पद सौंपा। डा. हसन ने तुरन्त इतिहास तथा पाठ्य पुस्तकों के विकृतिकरण का काम शुरू किया। वामपंथी इतिहासकारों और लेखकों को एकत्रित कर इस काम को अंजाम देना शुरू किया।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन किया गया और पाठ्य पुस्तकों में हिन्दुओं के बारे में अनर्गल बातें लिखी गईं। गोरक्षा के लिए भारतीयों ने अनेक बलिदान दिए। इसके बावजूद छात्रों को यह पढ़ाया गया कि आर्य गोमांस का भक्षण करते थे। हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने वाले गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान को भ्रामक ढंग से वर्णित किया गया। प्रो. सतीश चन्द्र द्वारा लिखित एनसीईआरटी की कक्षा ११वीं की पुस्तक 'मध्यकालीन भारत’ में लिखा गया.

''गुरु तेग बहादुर ने असम से लौटने के बाद शेख अहमद सरहिन्द के एक अनुयायी हाफिज आमिद से मिलकर पूरे पंजाब प्रदेश में लूटमार मचा रखी थी और सारे प्रांत को उजाड़ दिया था।”

''गुरु को फांसी उनके परिवार के कुछ लोगों की साजिश का नतीजा थी, जिसमें और लोग भी शामिल थे, जो गुरु के उतराधिकार के विरुद्ध थे। किन्तु यह भी कहा जाता है कि औरंगजेब गुरु तेग बहादुर से इसलिए नाराज था, क्योंकि उन्होंने कुछ मुसलमानों को सिख बना लिया था।”

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गुरु तेग बहादुर जैसी दिव्य विभूति को लुटेरा बताना और औरंगजेब के अत्याचारों की घटना पर पर्दा डालने का प्रयास करना अक्षम्य अपराध ही है। छद्म धर्म निरपेक्षता के ठेकेदारों ने हिन्दू समाज की गलत तस्वीर पेश की। जब केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने पाठ्य पुस्तकों से गुरु तेग बहादुर, भगवान महावीर और अन्य महापुरुषों पर आरोप लगाने वाले अंश हटवाने का प्रयास किया तो धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने बवाल मचाना शुरू कर दिया और आरोप लगाया गया कि भाजपा सरकार शिक्षा का भगवाकरण कर रही है।

इस बवाल के बीच कट्टरपंथी कभी सरस्वती वंदना को इस्लाम विरोधी बताकर स्कूलों का बहिष्कार करते रहे तो कभी वे अपने बच्चों को ग से गणेश पढ़ाने की बजाय ग से गधा पढ़ाने की सीख देते रहे। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द ङ्क्षसह जी और वीर सावरकर आदि के प्रेरक जीवन चरित्रों से छात्रों को वंचित किया जाता रहा। प्रफुल्ल बिदवई जैसे लेखकों ने अपने आलेख Fight Hindutava Head On में Poisonous Hindutava शब्द का इस्तेमाल किया था यानी जहरीला हिन्दुत्व। मैंने तब भी सवाल किया था.

उन्माद और नृशंसता की राजनीति की झीनी चादर देकर किसने ऐसा बना दिया कि भारत में हिन्दुत्व को जहरीला कहा जा रहा है?

तथाकथित कुछ अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों ने इस राष्ट्र के हिन्दुत्व को घृणा, विद्वेष, क्रूरता का पर्याय न केवल स्वीकार किया बल्कि बार-बार ऐसा लिखा भी।




साभार: पंजाब केसरी

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित