गुरुवार, 5 जुलाई 2012

पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने का समय आ गया है

पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने का समय आ गया है
वीरेन्द्र सिंह चौहान

पिछले साल जुलाई में पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने भारत के साथ कूटनीतिक दुव्यर्ववहार की जो हिमाकत की थी, साल भर बाद उनके विदेश सचिव ने उसे जस का तस दोहरा दिया। दोनों पाकिस्तानी नुमाइंदे दिल्ली आए तो हिंदुस्थान के साथ दोस्ती का पैगाम लेकर, मगर पता चला कि वह संदेशा तो महज होठों पर सजाने के लिए था। दिल में तो वे दिल्ली को अपमानित करने के मंसूबे लिए पधारे थे। ऐसा नहीं होता तो भला भारत में अपने आने पर अपने घोषित मंतव्य अर्थात हमारे सरकारी नुमाइंदों से बातचीत करने से पहले ही वे भारत को तोड़ने की मंशा रखने वाले कश्मीरी अलगाववादियों से नहीं मिलते। मगर ऐसा पिछली जुलाई में भी हुआ था और इस मंगलवार को भी हुआ। दिल्ली पिछली बार की तरह इस बार भी देखती रही। सुना है कि पिछली बार उस समय की भारतीय विदेश सचिव ने मंद से सुर में इस पाकिस्तानी करतूत पर अपनी खिन्नता जता कर मौन साध लिया था और इस बार भी शायद वैसा ही कुछ कूटनीतिक गलियारों में हुआ हो।
मंगल को जब पाकिस्तानी विदेश सचिव जलील अब्बास जीलानी दिल्ली पंहुचे तो उनके लबों पर छल भरा प्रेम का संदेश था। उन्हें कहते सुना गया कि भारत के लोगों के लिए पाकिस्तान की जनता और सरकार की ओर से मोहब्बत और अमन का संदेश लाया हूं। मगर पाकिस्तानी उच्चायोग पंहुचते ही जीलानी जिनसे मिले वे हिदंुस्थान के प्रति नफरत के भंडार हैं। उन्हें भारत की सरकार, भारत की संसद, भारत का संविधान , हमारा तिरंगा और हमारी सेना सबसे घिन आती है। वे भारत के शीश जम्मू और कश्मीर को भारत से अलग करने का सपना देखते हैं। हुर्रियत कांफ्रंेस के मीरवायज उमर फारूक,यासीन मलिक और सैयद अली शाह गीलानी क्या कहते और करते हैं, यह सबको मालूम है। इनमें गीलानी तो वह शख्स है जो खुद को सरेआम पाकिस्तानी कहना पसंद करता है। घाटी से विस्थापित और अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने को विवश कश्मीरी पंडितों की उनके घरों को वापसी का वह विरोध करता है।
केंद्र सरकार चाहती तो पाकिस्तान की इस कूटनीतिक अशिष्टता को दोहराने से जलील अब्बास और पाकिस्तान के कार्यवाहक उच्चायुक्त बाबर अमीन को रोका जा सकता था। बाबर अमीन ने जिस दिन पाकिस्तान के कश्मीरी एजेंटों को बुलावा भेजा, बात सार्वजनिक हो गई थी। बाबर अमीन को विदेश मंत्रालय तलब कर इस तरह की हरकतों से बाज आने के लिए कहा जाना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं किया गया। ऐसे में बाद में नाराजगी जताने का भला क्या फायदा। सरकार चाहती तो इन विघटनकारियों को श्रीनगर में ही रोक देती। मगर ऐसा भी नहीं किया गया। दिल्ली भला ऐसा क्यूं करती है ? हो सकता है कोई इसे किसी कूटनीति का हिस्सा बताते हुए इसके लिए हमारे विदेश मंत्रालय की पीठ भी थपथपाता दिखे। मगर अपमान सहने में भला क्या बहादुरी है ? इसमें तो कायरता अधिक झलकती है।
देखना यह है कि भारत सरकार क्या पाकिस्तान के प्रति अपने मौजूदा पिलपिले रवैये पर यूं ही कायम रहेगी या हकीकत के धरातल पर उतर कर चोर को चोर कहने का साहस जुटाएगी। अबु जंुदाल के मामले में गृहमंत्री पी. चिदंबरम के बयान और सचिव स्तरीय वार्ता की पूर्व संध्या पर विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की टिप्पणियों में हलकी सी कठोरता नजर तो आ रही है। यह कठोरता पाकिस्तान को समझाने के लिए है या सिर्फ आम भारतीय को भरमाने के लिए, इसका पता तो महीनों बाद कभी विकिलीक्स ही करेगा जब किसी अमरीकी दूत द्वारा व्हाइट हाउस को भेजी गई कोई गोपनीय केबल सार्वजनिक होगी।
पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने का समय आ गया है। वार्ता के लिए एस.एम. कृष्णा को अगस्त महीने में इस्लाबाद जाना ही है। पाकिस्तान में भारतीय उच्चायुक्त भी बाबर अमीन की तरह काम करके दिखाएं और सिंध और बलोचिस्तान से ऐसे तमाम नेताओं को मंत्री महोदय के साथ भोज का बुलावा भेज दे जो अपने अपने इलाकों को पाकिस्तान से आजाद कराने के लिए लड़ रहे हैं। क्यों न हिना रब्बानी खार से हाथ मिलाते हुए तस्वीर खिंचवाने से पहले हमारे कृष्णा साहब की तस्वीरें इन पाक-विरोधियों के साथ खिंचे और मीडिया में दिखें। वह कहावत सबने सुनी ही होगीः जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीड़ पराई। हिना खार को यूं खार अर्थात कांटे चुभाएं जाएं तो शायद उन्हें भी दिल्ली का दर्द समझ आ जाए।

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित