नवीन सोच के धनी थे सुदर्शन जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। कन्नड़ परम्परा में सबसे पहले गांव, फिर पिता और फिर अपना नाम बोलते हैं।
उनके पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की
नौकरी के कारण अधिकांश समय मध्यप्रदेश में ही रहे और वहीं रायपुर (वर्तमान
छत्तीसगढ़) में १८ जून, १९३१ को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। तीन भाई और
एक बहन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। रायपुर, दमोह, मंडला तथा
चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पाकर उन्होंने जबलपुर (सागर
विश्वविद्यालय) से १९५४ में दूरसंचार विषय में बी.ई की उपाधि ली तथा तब से
ही संघ-प्रचारक के नाते राष्ट्रहित में जीवन समर्पित कर दिया। सर्वप्रथम
उन्हें रायगढ़ भेजा गया।
प्रारम्भिक जिला, विभाग प्रचारक आदि की
जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद १९६४ में वे मध्य भारत के
प्रान्त-प्रचारक बने। श्री सुदर्शन जी ज्ञान के भंडार, अनेक विषयों एवं
भाषाओं के जानकार तथा अद्भुत वक्तृत्व कला के धनी थे। किसी भी समस्या की
गहराई तक जाकर, उसके बारे में मूलगामी चिन्तन कर उसका सही समाधान ढूंढ
निकालना उनकी विशेषता थी।
पंजाब की खालिस्तान समस्या हो या असम का
घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, अपने गहन अध्ययन तथा चिन्तन की स्पष्ट दिशा के कारण
उन्होंने इनके निदान हेतु ठोस सुझाव दिये। साथ ही संघ के कार्यकर्ताओं को
उस दिशा में सक्रिय कर आन्दोलन को गलत दिशा में जाने से रोका।
पंजाब के बारे में उनकी यह सोच थी कि
प्रत्येक केशधारी हिन्दू है तथा प्रत्येक हिन्दू दसों गुरुओं व उनकी पवित्र
वाणी के प्रति आस्था रखने के कारण सिख है। इस सोच के कारण खालिस्तान
आंदोलन की चरम अवस्था में भी पंजाब में गृहयुद्ध नहीं हुआ। इससे आंदोलन के
विदेशी आकाओं को बहुत निराशा हुई।
इसी प्रकार बंगलादेश से असम में आने वाले
मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिये हैं। उन्हें वापस भेजना ही चाहिए, जबकि
वहां से लुट-पिट कर आने वाले हिन्दू शरणार्थी हैं, अतः उन्हें
सहानुभूतिपूर्वक शरण देनी चाहिए। ऐसे ही पूरे देश से नौकरी अथवा व्यवसाय के
नाते पूर्वांचल में गये हिन्दुओं को घुसपैठिया कहकर उनका तिरस्कार नहीं
किया जा सकता।
सुदर्शन जी के चिन्तन एवं अध्ययन से
प्राप्त इन निष्कर्षों को जब स्वयंसेवकों तथा देशभक्त नागरिकों ने बोलना
शुरू किया, तो पंजाब तथा असम आन्दोलन की दिशा ही बदल गयी। असम में पिछले
दिनों बंगलादेशी घुसपैठियों तथा उनके भारत में बसे समर्थकों द्वारा जो
हिंसक उपद्रव किये गये, उससे सुदर्शन जी की गहरी सोच का सत्यता प्रमाणित
होती है। खालिस्तान आन्दोलन के दिनों में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ नामक संगठन
की नींव रखी गयी, जो आज विश्व भर के सिखों का एक सशक्त मंच बन चुका है।
श्री सुदर्शन जी को संघ-क्षेत्र में जो भी
दायित्व दिया गया, उसमें अपनी नव-नवीन सोच के आधार पर उन्होंने नये-नये
प्रयोग किये। १९६९ से १९७१ तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व
था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर
नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में
स्थान मिला। आज तो प्रातःकालीन शाखाओं पर आसन तथा विद्यार्थी शाखाओं पर
नियुद्ध एवं खेल का अभ्यास एक सामान्य बात हो गयी है।
आपातकाल के अपने वन्दीवास में उन्होंने
योगचाप (लेजम) पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को बिलकुल बदल डाला।
योगचाप की लय और ताल के साथ होने वाले संगीतमय व्यायाम से १५ मिनट में ही
शरीर का प्रत्येक जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है। १९७७ में
उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया तथा शारीरिक प्रमुख के साथ-साथ वे
पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक भी रहे। इस दौरान उन्होंने वहां की
समस्याओं का गहन अध्ययन करने के साथ-साथ बंगला और असमिया भाषा पर भी अच्छा
अधिकार प्राप्त कर लिया।
१९७९ में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख
बने। शाखा पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक कार्यक्रम (गीत,
सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कहानी, प्रार्थना अभ्यास),
मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग, समाचार समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत,
सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय से
होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप १९७९ से १९९० के
कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये
‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया।
१९९० में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी।
सुदर्शन जी अच्छे वक्ता के साथ ही अच्छे
लेखक भी थे। यद्यपि प्रवास के कारण उन्हें लिखने का समय कम ही मिल पाता था,
फिर भी उनके कई लेख विभिन्न पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किये। अपने
धाराप्रवाह उद्बोधन में दोहे, कुंडली, श्लोक तथा कविताओं के उद्धरण देकर वे
श्रोताओं के मन पर अमिट छाप छोड़ते थे।
देश का बुद्धिजीवी वर्ग, जो कम्युनिस्ट
आन्दोलन की विफलता के कारण वैचारिक संभ्रम में डूब रहा था, उसकी सोच एवं
प्रतिभा को राष्ट्रवाद के प्रवाह की ओर मोड़ने हेतु ‘प्रज्ञा-प्रवाह’ नामक
वैचारिक संगठन भी आज देश के बुद्धिजीवियों में लोकप्रिय हो रहा है। इसकी
नींव में श्री सुदर्शन जी ही थे। संघ-कार्य तथा वैश्विक हिन्दू एकता के
प्रयासों की दृष्टि से उन्होंने ब्रिटेन, हालैंड, केन्या, सिंगापुर,
मलेशिया, थाईलैंड, हांगकांग, अमेरिका, कनाडा, त्रिनिडाड, टुबैगो, गुयाना
आदि देशों का प्रवास भी किया।
इस्लाम और ईसाइयों से प्रभावित अधिकांश
संस्थाएं प्रायः राष्ट्र की मुख्य धारा से कटी रहती हैं। मीडिया भी प्रायः
उनके मजहबी स्वरों को ही प्रमुखता से छापता है। ऐसे में अल्पसंख्यकों तक
संघ को पहुंचाने के लिये सुदर्शन जी ने वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री इन्द्रेश
कुमार जी को इस क्षेत्र में काम करने को कहा। जिससे कुछ संस्थाएं ऐसी बनी
जिनमें राष्ट्रवादी मुसलमान और ईसाईयों को जुड़ा गया।
सुदर्शन जी का आयुर्वेद पर बहुत विश्वास
था। लगभग २० वर्ष पूर्व भीषण हृदयरोग से पीड़ित होने पर चिकित्सकों ने
बाइपास सर्जरी ही एकमात्र उपाय बताया; पर सुदर्शन जी ने लौकी के ताजे रस के
साथ तुलसी, काली मिर्च आदि के सेवन से स्वयं को ठीक कर लिया। कादम्बिनी के
तत्कालीन सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी सुदर्शन जी के सहपाठी थे। उन्होंने इस
प्रयोग को दो बार कादम्बिनी में प्रकाशित किया। अतः इस प्रयोग की देश भर
में चर्चा हुई।
संघ कार्य में सरसंघचालक की भूमिका बड़ी
महत्वपूर्ण है। चौथे सरसंघचालक श्री रज्जू भैया को जब लगा कि स्वास्थ्य
खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते, तो उन्होंने वरिष्ठ
कार्यकर्ताओं से परामर्श कर १० मार्च, २००० को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा
में श्री सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने
भी इसी परम्परा को निभाते हुए २१ मार्च, २००९ को सरकार्यवाह श्री मोहन
भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया।
आज देश में जितनी भी सामाजिक, राजनीतिक या
धार्मिक संस्थाएं हैं, वहां छोटे-छोटे पदों के लिए कितनी मारामारी होती
है, यह सब देखते ही हैं। ऐसे में विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के
सर्वोच्च पद से इस प्रकार निवृत होना सामान्य लोगों को बड़ा आश्चर्यजनक
लगता है; पर जो लोग संघ की कार्यप्रणाली को गहराई से जानते हैं, उनके लिए
यह सामान्य बात है। इतना ही नहीं, तो दायित्व से स्वैच्छिक निवृत्ति के बाद
भी सक्रिय रहना और अपने सहयोगी रहे कार्यकर्ता के आदेशानुसार काम करना, यह
अजूबा संघ शाखा की भट्टी में तपे हुए लोगों के लिए ही संभव है। गीता में
भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की चर्चा की है। श्री सुदर्शन जी भी ऐसे ही
स्थितप्रज्ञ महानुभावों की विराट श्रृंखला की एक कड़ी थे।
पिछले कुछ समय से वे आयुवृद्धि संबंधी
अनेक समस्याओं से पीड़ित थे। फिर भी वे प्रतिदिन प्रातःकालीन भ्रमण पर जाते
थे। यह भी एक संयोग है कि १५ सितम्बर, २०१२ को अपने जन्मस्थान रायपुर में
ही उनका देहांत हुआ।
- विजय कुमार
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