सोमवार, 7 जनवरी 2013

डा. भागवत के वक्तव्यों को ठीक तरह से पेश करें मीडिया : मनमोहन वैद्य

डा. भागवत के वक्तव्यों को ठीक तरह से पेश करें मीडिया : मनमोहन वैद्य

Source: NEWS BHARATI- HINDI      Date: 1/7/2013 4:36:03 PM
$img_titleपढ़िए डा.  भागवत के इन्दौर में दिए गएवक्तव्यों का प्रतिलेख
इन्दौर, जनवरी ७ , २०१३ : तथ्यों की छानबीन किये बिना सरसंघचालक डा. भागवत जी के वक्तव्यों पर विवाद खड़ा करने का प्रयास छोड़कर मीडिया उनके वक्तव्यों को सही तरह से पेश करें, ऐसा आवाहन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डा. मनमोहन वैद्य ने किया है।
डा. वैद्य ने कहा, "पिछले कुछ दिनों से परम पूजनीय सरसंघचालक जी के वक्तव्यों पर मीडिया द्वारा अवांछित विवाद चलाया जा रहा है। इसमें खेद की बात यह है कि कुछ चैनल तथा समाचार पत्र बिना तथ्यों की छानबीन किये अतिउत्साह तथा गैर जिम्मेदार ढंग से यह कर रहे हैं। पूजनीय सरसंघचालक जी का सिल्चर का वक्तव्य और विशेषतः इन्दौर के भाषण के परिपेक्ष्य में हुई चर्चा इसका उदाहरण हैं। मीडिया के मित्रों से निवेदन है कि बिना तथ्यों की छानबीन किये, उत्साह में इस प्रकार के अनुचित पत्रकारिता के व्यवहार से बचें।"
इस विवाद के चलते, सरसंघचालक डा. मोहनजी भागवत ने इन्दौर के कार्यक्रम में वास्तव में क्या कहा, यह जानने का प्रयास 'न्यूजभारती' ने किया। इन्दौर में परमानन्द योग थिरपी अस्पताल के अनावरण समारोह में सरसंघचालक डा. भागवत जी ने जो भाषण किया उसके कुछ (विवाद से संबंधित) अंशो का प्रतिलेख हम यहां दे रहे हैं।
$img_titleडा. भागवत ने कहा-"पिछले ३०० साल में, मनुष्य अपने विचारों के अहंकार में विचार करता गया| जो मैं कहता हूँ वही सत्य है ऐसा मानते गया। अहंकार इतना बढ़ गया उसका, कि उसने कहा कि अगर परमेश्वर भी है, तो उसको मेरे टेस्ट टयूब में उपस्थित होना पड़ेगा तभी मानूँगा।
पाश्चात्त्य समाजविचार तोड़ने वाला
तो ऐसी जब स्थिति आई तो विचार निकला की दुनिया क्या है, आत्मा परमात्मा बेकार की बात है, सब कुछ जड़ का खेल है। कोई एक हिग्ग्ज बोसों है, वो कणों को वस्तुमान प्रदान करता है, फिर ये कण आपस में टकराते हैं, कुछ मिल जाते हैं, कुछ बिखर जाते हैं, उसमें से ऊर्जा भी उत्पन्न होती है और उसमें से पदार्थ भी उत्पन्न हो जाते हैं। और इसका नियम कुछ नहीं, सम्बन्ध ही कुछ नहीं है| एक कण का दूसरे कण से कोई सम्बन्ध नहीं| इस सृष्टि में किसी का किसी से सम्बन्ध नहीं है, लाखो वर्षों से चली आ रही दुनिया, तो कहते हैं वो संबंधों की बात नहीं| वो स्वार्थ की बात है| ये एक सौदा है, theory of contract, theory of social contract, पत्नी से पति का सौदा तय हुआ है। इसको आप लोग विवाह संस्कार कहते होंगे, लेकिन वह सौदा है| तुम मेरा घर संभालो मुझे सुख दो, मैं तुम्हारे पेट पानी की व्यवस्था करूँगा और तुमको सुरक्षित रखूँगा। और इसलिए उसपर चलता है, और जब तक पत्नी ठीक है तब तक पति contract  के रूप में उसको रखता है, जब पत्नी contract पूर्ण नहीं कर सकती तो उसको छोड़ो। किसी कारण पति contract पूर्ण नहीं करता तो उसको छोड़ो। दूसरा contract करने वाला खोजो। ऐसे ही चलता है, सब बातों में सौदा है, अपने विनाश के भय के कारण दूसरों की रक्षा करना। पर्यावरण को शुद्ध रखो, नहीं तो क्या होगा? नहीं तो मनुष्य का विनाश हो जायेगा। मनुष्य का विनाश नहीं होता है तो पर्यावरण से कोई मतलब नहीं। इसलिये एक तरफ वृक्षारोपण के कार्यक्रम करना, दूसरी तरफ फैक्ट्री का मैला नदी में छोड़ना। दोनों काम एक साथ करना।
'सर्वे भद्राणि पश्यन्तु' क्यों? क्यों कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो बहुत संहार होगा, डर के मारे... और डर जादा चलता नहीं। इतना बड़ा सर्व समर्थ रशिया था, ७०- ७२ साल तक उसका डर चला, उसके बाद लोगों ने डरना छोड़ दिया। मरी हुई मुर्गी आग को क्यूँ डरेगी? इसलिए वो जो भयपूर्वक एक वैभव का दृश्य उत्पन्न किया था वो टिकता नहीं।
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अध्यात्माधारित भारतीय समाजविचार जोड़ने वाला

और भारत के विचार क्या कहते हैं इस मामले में? वो कहते हैं ऐसा नहीं है भाई, दुनिया संबंधों पर आधारित है| दिखता अलग है लेकिन सब एक हैं। यों कहो कि एक ही अनेक रूप में प्रगट हुआ है। इसलिए सब एक दूसरे से जुदा है। विश्व में कही पर घटित होने वाली अर्थहीन घटना भी, सारे विश्व के व्यापार पर कुछ न कुछ परिणाम करती है। अच्छी बातें हो गयी, अच्छे परिणाम होंगे। नहीं हुई, नहीं होंगे। किसी का विनाश हो रहा है तो वो तुम्हारा ही विनाश है। तुम उस से जुड़े हो; तुम उसी के अंग हो। मनुष्य हो; कोई सृष्टि के बाहर नहीं हो।
अपने चित्त में अभ्यासपूर्वक धीरे धीरे इस को देखना, समझना, उस से जुड़ना, जुड़कर उस के साथ ही रहने का अभ्यास करना। ऐसा व्यक्ति जो जुड़ने का प्रयास करता है और थोड़ा बहुत जुड़ता है, उस के ध्यान में आता है, कि सब मेरा ही है, सब मैं ही हूँ, तो फिर कौनसा कर्म कैसे करना इस में वो कुशल बन जाता है। जैसे गीता में कहा है, 'योग: कर्मसुकौशलम'। वो अपना भी जीवन सुख का करता है, लोगों का भी सुखकारक करता है। अपने विकास से सारी दुनिया का विकास करता है, सारी दुनिया के विकास से अपना विकास करता है। दुनिया में कोई संघर्ष नहीं रहता। दुनिया में कोई तृष्णा नहीं रहती। दुनिया से दुःख का परिहार हो जाता है। अपने यहाँ पर भारत में से जितनी भी विचारधाराएँ निकली हैं, सबने यही बताया है, शब्द अलग-अलग हैं ।"
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