बुधवार, 3 दिसंबर 2014

गीता से बन सकती है सबको अपना मानने की प्रकृति : प.पू. सरसंघचालक

गीता से बन सकती है सबको अपना मानने की प्रकृति : प.पू. सरसंघचालक 
5 हजार 1 सौ 51 वर्ष भगवद्गीता के पूरे हुये और हमारे विदेशी दिनदर्शिका में प्रतिवर्ष गीता जयंती है. आज भी अपने देश में सर्वत्र ऐसे लोग हैं जिनको गीता के 18 अध्याय कंठस्थ हैं. पढ़ने वाले लोग हैं, देखने वाले लोग हैं, उस पर बोलने वाले लोग हैं, इतनी सुदीर्घ परम्परा में समय के अनेक फेरों में श्रीमदभगवद् गीता को लेकर अनेक टीकायें और अनेक भाष्य बने और आगे भी बनते रहेंगे. जब-जब कभी किसी समाज को संकट से उबारने की, समाज के पुरुषार्थ को जगाने की आवश्यकता पड़ी; तब-तब गीता पर भाष्य लिखा गया. भारत की इस आध्यात्मिक विरासत को जानने का यत्न करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को जिस प्रस्थानत्रयी का अध्ययन आवश्यक होता है, उसका एक अविभाज्य अंग श्रीमदभगवद् गीता है.

भगवद् गीता वैश्विक ग्रंथ है, सबके लिये है, भगवद् गीता भगवान ने कही तब हिन्दू शब्द नहीं था. उस समय दुनिया में यह भेद नहीं थे, जिन भेदों की संकरी गलियों में घुसकर हम अपने साथ-साथ सारी दुनिया का भी इतना नुकसान करते रहते हैं, यह सारे भेद उस समय नहीं थे. युद्ध के लिये वहां एकत्र आये बंधु भी, कौरव और पांडव, सौ कौरव और पांच पांडवों को छोड़ दिया तो बाकी सब लोग आपसी रंजिश उतारने के लिये नहीं आये थे. एक निर्णय करना था कि क्या होना चाहिये, और निर्णय के बाकी सब रास्ते बंद हो चुके थे, एक ही रास्ता रह गया था, इसलिये लड़ने आये थे. चीन देश की सेना भी आयी थी, यवन देश की सेना भी आयी थी, उनका इस प्रश्न से कोई सम्बन्ध नहीं था कि कौरवों को राज्य मिले या पांडवों को. लेकिन मूल्य दांव पर लगे थे और ऐसे प्रसंग के प्रकाश में, मोहग्रस्त अर्जुन को मोह से निकालने के लिये इसका उपदेश हुआ. आप उस अर्जुन की स्थिति देखिये, वह कोई अंजान या अनभिज्ञ व्यक्ति नहीं है, समाज में ज्ञान, कृतत्व और वैभव के बारे में एक व्यक्ति का जितना उत्कर्ष हो सकता है, उतना उत्कर्ष अर्जुन का हुआ है. लेकिन उसके सामने परिस्थिति ऐसी है कि एक तरफ उसको यह मान्यता सता रही है कि हिंसा गलत है. हांलांकि यह सत्य है, उसमें कोई गलती नहीं है, हिंसा गलत ही है. अहिंसा ही सत्य है, अहिंसा ही श्रेय प्रेय सब कुछ होनी चाहिये. लेकिन वह अपने गुरु और रिश्तेदारों के साथ राज्य को लेकर हिंसा करने जा रहा है. आखिर, यह राज्य कौन साथ ले जाता है?  जीवन का यह वैभव साथ जाता है क्या? साथ तो वह नहीं जाता. साथ रहने वाले सत्य की अवमानना करते हुए जो साथ नहीं रहने वाला, उसके लिये मैं लड़ रहा हूं क्या यह सही है?  यह प्रश्न उसके सामने था.

जियो गीता 5151 वर्ष के बाद हम यहां बैठे हैं और भगवदगीता का स्मरण कर रहे हैं. यह केवल पुस्तकों में नहीं रही है.  गीता को क्यों जीवन में उतारा गया? गीता के अनुसार जीवन जीने की अथक अविश्रांत परम्परा अपने देश में चलती आई है और आज भी विद्यमान है. उसको समाज-व्यापी होने की आवश्यकता है. इसलिये यह उत्सव है. गीता जीवन जीने की गीता है, गीता में क्या है, इसके बारे में, कहने को तो संत ज्यादा अधिकारी हैं, उन्होंने बताया और जीने के लिये कहा. परन्तु जब जीने को जाते हैं तो अच्छी बातों का प्रश्न सामने आता है. जैसे जियो गीता जीने के लिये जाओ और अपना ही जीवन समाप्त होने लगे तो क्या करना चाहिये? जियो गीता की ओर बढ़ने पर लगे कि उसका बड़ा विरोध है तो क्या करूं? इसका जवाब यही है कि गीता का उपदेश इस तथ्य पर आधारित है कि सत्य गूढ़ है, वह साधना के बाद ही अनुभूति करके समझा जा सकता है. उसके प्रकाश में क्या उचित है? क्या अनुचित है?  इसका विवेक कैसे करना है.

हर व्यक्ति के जीवन में अर्जुन जैसी स्थिति पैदा होने का प्रसंग कभी न कभी आता ही है. भगवान कृष्ण  ने स्वयं भगवद् गीता में कहा है कि कभी-कभी धर्म, अधर्म का स्वरूप लेकर आता है. जैसे अर्जुन के सामने उस समय लड़ने का धर्म था. भगवान ने उसको बताया था. लेकिन वह अधर्म का स्वरूप दिख रहा है, हिंसा होने वाली है, समाज की व्यवस्थाओं का उच्छेदन होने वाला है. अपने ही रिश्तेदारों को मारने वाले हैं और जिस भौतिक सुख-संपदा को हम नश्वर मानते हैं, उसके लिये हम यह युद्ध करने वाले हैं. उस समय धर्म, अधर्म का रूप लेकर आया और कभी-कभी अधर्म, धर्म का रूप लेकर आता है. युद्ध शुरू होने से पहले धृतराष्ट्र ने संजय को भेजा और संजय ने आते ही युधिष्ठर महाराज से कहा कि यह कौरव तो महापापी हैं. किसी की सुनते नहीं, अज्ञानी भी हैं और वे ऐसा कर रहे हैं, अड़ रहे हैं. इसमें तो कोई बड़ी बात नहीं. वे तो ऐसा ही करेंगे और नरक ही भोगेंगे, लेकिन आप पांचों भाई तो धर्मज्ञ हो, आप तो समझदार हो, आप क्यों फालतू लड़ाई मोल लेते हो, छोड़ दो, इतनी सारी बातें किसलिये करनी हैं, जिससे हिंसा फैलेगी, जिससे क्रूरता होगी, जिससे सारा नाश होगा. यह सब क्यों करें ? आप तो जानते हो, तो धर्म का स्मरण करके आप ही थोड़ा नरम हो जाओ, चुप हो जाओ तो अच्छा रहेगा. क्षण भर के लिये तो युधिष्ठर को भी लगा कि यही सत्य है. क्योंकि बात में तो दम है, यह भी तर्क हमारे शस्त्रों का ही है कि सत्य और अहिंसा की रक्षा सब कुछ खोकर भी करनी है. फिर हिंसा का रास्ता क्यों लेना? युधिष्ठर क्षुब्ध होने लगा तो राज्यसभा में उस समय उपस्थित भगवान कृष्ण ने कड़े शब्दों में संजय को डांटा कि उसको वापस ही जाना पड़ा. इससे स्पष्ट है कि युधिष्ठर के सामने उस समय धर्म का रूप लेकर अधर्म आया था. हम सबको अपने जीवन में इस प्रसंग का व्यक्तिश: और प्रत्येक समाज को समूहतः सामना करना ही पड़ता है. क्योंकि परिस्थिति हमेशा समान नहीं रहती. परिस्थिति की अनुकूलता का, प्रतिकूलता का खेल चलता रहता है. अनुकूल परिस्थिति में हर्षित होना और प्रतिकूल परिस्थिति में निराश होकर बैठ जाना उचित नहीं. इस खेल से दूर रहकर हर परिस्थिति में समान रहना, यही भगवान ने बताया है.

मैंने जो समझा कि भगवान ने पहली बात बताई कि भागो मत. तुम जिस परिस्थिति में हो, उससे  मत भागो, उसका सामना करो. जा कहां रहा है जायेगा तो अपकीर्ति ही होगी, और नुकसान भी होगा. लड़ेगा तो ज्यादा क्या होगा, मरेगा, और मरेगा तो स्वर्ग मिलेगा. जीतेगा तो वैभव मिलेगा. इसलिये पहली बात भगवान ने हम सबको यह कहा है कि परिस्थिति चाहे जैसी हो व्यक्तिगत, सामाजिक और विश्व के जीवन में भागने के बजाय डट कर अपना काम करो. अपने काम को पहचानने की भी आवश्यकता है. अपना कर्तव्य करने में श्रेय है. भागने के लिये इधर-उधर का उदाहरण या किसी महापुरुष का दृष्टांत छुटकारा नहीं दिलायेगा. यह व्दंव्द उपस्थित हुआ है, तुम क्षत्रिय हो तो क्षत्रिय जैसे खड़े हो जाओ.

मुझसे देखा नहीं जाता यह कहते हुए विदुर दूर चले गये. विदुर का निर्णय ठीक हो सकता है, वे इस प्रकार के कर्तव्य के भागी पुरुष नहीं हैं. उनका जितना कर्तव्य था उन्होंने किया. अब कर्तव्य का समय नहीं हैं तो दूर चले गये. देश में इतने सारे ऋषि मुनि थे, वहां कोई नहीं आया. उनका यह कर्तव्य नहीं था. जिनका कर्तव्य था, वे सब रणभूमि में खड़े हो गये.

पहली बात यह है कि भागो मत और अपना कर्तव्य पहचानो. अपना कर्तव्य पहचानने को अगर हम केवल शब्दार्थ में लेंगे तो हम भी फंस जायेंगे. क्योंकि अपना तो हम जान सकते हैं. लेकिन यह नहीं जान सकते कि अपना यानि किसका ?

मेरे सामने कभी-कभी मिठाई आती है. मैं डायबिटीज वाला हूं, तो अपना यानि मैं शरीर मानूं तो शरीर तो कह रहा है कि खा लो, दो-चार, क्या होता है, एक गोली ज्यादा ले लेना. मैं कौन हूं, मैं शरीर हूं, मैं अपने मन की वासना या विकार हूं, मैं मेरी बुद्धि की विकृति हूं. शरीर, मन, बुद्धि जिस सत्य के प्रकाश में चलने चाहिये वह तुम हो. तुम यह शरीर, मन, बुद्धि नहीं हो, उसके भटकाव में जाओगे, क्योंकि जो तुम हो उस  रथ पर बैठे हो, यह बुद्धि, मन, शरीर; यह सारे तुम्हारे नौकर हैं. तुम आत्मा हो. उसके प्रकाश में उचित- अनुचित का निर्णय करो. और इसलिये युक्त हो जाओ. योग करो, तुम भौतिक जगत से जुड़े हो, अपने अहंकार से जुड़े हो, अपनी अव्यवसायिकतात्मा बुद्धि से जुड़े हो, अपने मन की वासना व विकारों से जुड़े हो, अपनी इंद्रियों की खींचतान से जुड़े हो, उससे अलग हो जाओ. स्वयं से जुड़ो और स्वधर्म का निर्धारण करो. योग युक्त बनो.

योग क्या है? गीता के दो प्रसिद्ध वाक्य आपको मालूम हैं, उसमें दो का आचरण भी हमने किया तो हमारा और दुनिया का जीवन बदल जायेगा. पहली बात बताई भगवान ने कि ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ यानी जो भी काम तुम्हारा है, उसको सत्यम, शिवम्, सुन्दरम उत्तम करना. किसी भी कार्य को व्यवस्थित किया जाता है, समय पर किया जाता है, सुन्दर रीति से किया जाता है. सबको अच्छा लगे ऐसे किया जाता है और उसका पूरा परिणाम मिले, इतना किया जाता है, वह योग है.

दूसरी बात कही समत्वं योग उच्यते. सम रहो, संतुलित रहो, किसी एक ओर मत झुको, क्योंकि सब तुम्हारे हैं और कोई तुम्हारा नहीं है, वो आत्मा है, सर्वव्यापी है. सब समान हैं और सब में आप हैं. जात-पात, पंथ-सम्प्रदाय, भाषा-प्रांत यह सब छोड़ो. एक ही अनेक बना है. उस एकता के प्रकाश में सबको अपनत्व दो.  यह जानकर रहो कि यह सब यहीं रहने वाले हैं, तुम स्वतन्त्र हो, अलग हो, स्वायत्त हो, तुम चले जाने वाले हो, इसलिये मोह में मत पड़ो. अनभिः स्नेह, ऐसा शब्द है गीता में. यह विषेश स्नेह मत करो, यह मोह होता है, पक्षपात होता है. स्नेह करो, अधिक स्नेह मत करो. अनभिस्नेही बनो.

सबको समान देखते हुये, आत्म सर्वभूतेषु मानते हुये, कर्म और कर्तव्य करो. तुम्हारा कर्तव्य और कर्म  लोक-संग्रह के लिये होना चाहिये., शरीर, मन और बुद्धि के पीछे भागने वाला, जीवन के सुखों में लोभ-लालच यह अज्ञान है. सावधान रहकर, यह जानकर, कि तुम वह लालची नहीं हो, तुम सब यह प्राप्त कर्तव्य के नाते कर रहे हो, तुम आत्मा से, मन से इससे अलिप्त रहो.

तीसरी बात प्रसिद्ध है  कि जो करते हो उसके परिणाम की मत सोचो. सबके साथ समदृष्टि रखकर, अपना कर्तव्य तुम कुशलतापूर्वक करते हो, उसका परिणाम या अपेक्षित परिणाम क्या होता है, यह बिलकुल मत सोचो, क्योंकि यह किसी के हाथ में नहीं. फ्लाइट जाने के लिये तैयार हो गयी, कोहरा आ गया, एक दो घण्टे के लिये, आप सबको अनुभव होगा इसका, इसमें दोष किसका, सबने अपना काम ठीक किया, लेकिन कोहरा आ गया. यह कौन तय कर सकता है? यह दुनिया का नियम है, दुनिया में यह होता रहता है, सब बाते तुम्हारे हाथ में नहीं  रहतीं. तुम क्यों फल की आशा करते हो? कार्य अपने हाथ में है, फल प्रभु हाथ में.

इसलिये गीता का संदेश है कि इन सब बातों को मन में स्थिर रखने के लिये, एकान्त में साधना करो. सत्य की साधना करो. सत्य की साधना करते चले जाओ-करते चले जाओ. और लोकान्त में यानि जगत में, बाहर के जीवन में फल की अपेक्षा किये बिना परोपकार और सेवा की भावना से निष्काम पुरुषार्थ करो. यह परिस्थिति के उतार-चढ़ाव में कभी विषम नहीं होता, संतुलन डिगता नहीं. मोह, आकर्षणों और विकृतियों में वह भटकता नहीं. ऐसे धीर पुरुष बनो. इसलिये लौकिक जीवन में उसको यश मिले या न मिले. सारी दुनिया को सही रास्ते पर चलने के लिये प्रकाश देने वाले दीप-स्तम्भ की भांति उसका जीवन रहे. उसके लौकिक जीवन को जन्म-जन्मान्तर लोग याद करते रहें. हमारे देश की स्वतन्त्रता के लिये 1857 से भी पहले 1833 में प्रयास शुरू हुआ था. लेकिन सफलता तो 1947 में ही मिली. इतने लम्बे समय में भगत सिंह को क्या कहेंगे, क्या उनको यश मिला? उनके लौकिक जीवन के यश की स्केल पट्टी पर लोग कहेंगे कि भगत सिंह ने बलिदान तो किया पर यशस्वी नहीं हुये. लेकिन भगत सिंह के लिये यश और अपयश क्या है और हमारे लिये भगत सिंह का यश और अपयश क्या है. उसका जीवन हमारे लिये सब जीवनों को मार्गदर्शन करने वाला एक दीप स्तम्भ है. हमारे इन सब क्रांतिकारियों में अनेक के हाथ में तो फांसी के फंदे पर झूलते समय हाथ में गीता थी.

प्राप्त परिस्थिति का वीरता के साथ सामना करते हुये, अपने जीवन को सार्थक बनाते हुये समाज में उस सार्थकता की परम्परा बनाने वाला प्रकाश देने का जीवन जिस भगवद् गीता से मिलता है, उस गीता की आवश्यकता है.

संतुलन खो चुकी दुनिया फिर से संतुलन चाहती है, संतुलन सत्य के प्रकाश में मिलता है और सत्य गीता में है. उस सत्य का आचरण करने की रीति गीता में बताई गई है. बताने वाला स्वयं योगेश्वर कृष्ण हैं. जिसके लिये बताया गया है, वह धनुर्धर पार्थ है. इसलिये कहा गया है उस धनुर्धर पार्थ के कृतनिश्चय से अगर हम इस गीता को ग्रहण करें तो वह व्यक्ति या समाज प्रत्यक्ष श्री परमेश्वर के सदैश्वर जीवन का अनुभव लेने का अधिकारी बन जाता है.  और वो समाज. रहती यह गीता है, इसलिये पांच हजार एक सौ इक्यावन वर्श पहले रणांगन में जो गीता बतायी गयी. उस गीता का आचरण करने की परम्परा हमारे देष के ऋशियों ने, मुनियों ने, मनीशियों ने, महापुरुशों ने, सबने सब प्रकार के परिश्रम करके, कश्ट सहन करके डाली है, आज तक लाई नहीं है. दुनिया को इस गीता को समय-समय पर जीवंत दिखाने का काम, क्योंकि उसका जन्म यहां पर कुरुक्षेत्र में हुआ, हम भारतवासियों का है, भारत वासियों को उस कर्तव्य की याद दिलाना, और उस पथ पर आगे बढ़ाना, ऐसा वातावरण उत्पन्न करने के लिये कार्यक्रम है. गीता के ही उस निश्काम पुरुशार्थ के उपदेष को आज से प्रारम्भ करते हुए हम इस सत्ता और सत्ता से आगे चलने वाले सारे कार्यों में अपना पूरा योगदान करें यह एक आवाहन आपके सामने रखता हुआ और इतनी लम्बी जोर से बात पूजनीय संतों ने कृपा करके सुन ली इस बालक की इसलिये उनके प्रति कृतज्ञता और और आपको सबको धन्यवाद देता हुआ बात अपनी समाप्त करता हूं.
(सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी द्वारा लाल किला मैदान दिल्ली में श्रीमदभगवदगीता के पावन उपदेश के 5151 वर्ष के अवसर पर आयोजित गीता प्रेरणा महोत्सव के भूमि पूजन पर दिया गया सम्पादित पूर्ण उदबोधन)

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित