जनसत्ता के २४ फ़रवरी के अंक में प्रकाशित महेश जी शर्मा की प्रतिक्रिया
महेश चंद्र शर्मा, अध्यक्ष, एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
संघ को जानें भी
जनसत्ता के
लेखक विद्वान और
विचारक हैं, उनके
विश्लेषण में पैनापन भी
होता है, लेकिन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व के
बारे में उनकी
जानकारियों और विश्लेषण पर
आश्चर्य होता है। संघ
की प्रत्यक्ष जानकारियां जिनके
पास हैं, उन्हें
हास्यास्पद लगते हैं, इनके
आलेख। पचास साल
से संघ का
स्वयंसेवक होने के बावजूद
जनसत्ता के लेखकों से
हमें जानकारी मिलती
है कि हिटलर
संघ के प्रिय
नायक हैं। पचास
सालों में संघ
के बौद्धिकवर्गों में
या साहित्य में
हमने एक भी
बार सकारात्मक अर्थों
में यह नाम
नहीं सुना या
पढ़ा।
साम्यवादी लेखक
गोलवलकर के नाम से
लिखी पुस्तक ‘वी
डिफाइन आॅवर नशनहुड’
का हवाला हमेशा
देते हैं। यह
पुस्तक 1939 में प्रकाशित हुई
थी, तब तक
न द्वितीय महायुद्ध हुआ
था, न गोलवलकर संघ
के सरसंघचालक थे।
वह बाबा साहब
सावरकर की पुस्तक
‘राष्ट्र मीमांसा’ का इंगलिश रेंडरिंग था,
उसकी प्रस्तावना तत्कालीन कांग्रेस के
वरिष्ठ नेता बापू
अणे ने लिखी
थी। यह पुस्तक
‘श्री गुरुजी समग्र’
का भी हिस्सा
नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी
कार्यालय के अलावा शायद
कहीं यह पुस्तक
उपलब्ध भी नहीं
है।
डॉ
हेडगेवार, श्री गुरुजी या
दीनदयालजी ने यह कभी
नहीं कहा कि
हमें भारत को
‘हिंदू राष्ट्र’ बनाना
है। संघ का
आग्रह है कि
हमें आत्म साक्षात्कारपूर्वक जानना
है कि भारत
‘हिंदू राष्ट्र’ है।
यह राजनीतिक अवधारणा नहीं
है। हमें ‘राष्ट्र-राज्य’
और राष्ट्रावधारणा के
अंतर को भी
समझना चाहिए। राष्ट्र कोई
कृत्रिम इकाई नहीं है,
राष्ट्र बनाए नहीं जाते।
भू-सांस्कृतिक रूप
से उत्पन्न होते
हैं।
संघ
संस्थापक डॉ हेडगेवार ने
कहा ‘हिंदुत्व ही
राष्ट्रीयत्व है।’ अत: भारत
‘हिंदू राष्ट्र’ है।
मजहब और राजनीति को
राष्ट्रीयत्व का आधार स्वीकार करने
को वे तैयार
नहीं थे। उन्होंने ‘हिंदू’
शब्द का प्रयोग
मजहब या रिलीजन
के संदर्भ में
नहीं किया। इसी
संदर्भ को आगे
गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय ने
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की अवधारणा के
नाते विकसित किया।
इस अवधारणा से
किसी की असहमति
हो तो आपत्ति
नहीं, लेकिन हिंदू
को मजहबी बना
कर संघ की
आलोचना करना, अवधारणात्मक तथ्यों
की अवहेलना करना
है।
संघ
की धारणा है
कि मुसलमान और
ईसाई के समांतर
हिंदू कोई ‘संप्रदाय’ नहीं
है, और हिंदू
के समांतर मुसलिम
और ईसाई कोई
‘राष्ट्र’ नहीं है। मुसलिम
की पृथक राष्ट्रीयता की
मान्यता ने ही द्वि-राष्ट्रवाद को स्थापित किया
और भारत का
विभाजन हुआ। पृथक
अस्मिता के इस तत्त्व
का संघ विरोधी
है। भारतीय संप्रदायों के
साथ ही सामी
संप्रदायों का भी सहअस्तित्व संभव
है। दीनदयाल उपाध्याय ने
मोहम्मदपंथी और ईसापंथी हिंदू
की अवधारणा दी
थी।
भारत
की संप्रदाय, भाषा
और लोकाचार की
विविधता को संघ भारत
की राष्ट्रीयता का
शृंगार मानता है।
ये विविधताएं हमारे
पूर्वजों ने मेहनत से
संजोई हैं। ये
विविधताएं पृथकता की नियामक
नहीं हैं बल्कि
एकात्मकता की पोषक हैं।
विविधताओं को पृथकता मानने
वाला ‘बहु राष्ट्रवादी’ चिंतन
संघ को स्वीकार नहीं
है। साम्यवादी विचारक
भारत में ‘बहुराष्ट्रवाद’ के
समर्थक रहे हैं,
इसलिए उन्होंने भारत
विभाजनकारी ‘द्वि-राष्ट्रवाद’ का
भी समर्थन किया
था। आज भी
यह विचारधारा विभाजक
तत्त्वों को उभारती और
उनका पोषण करती
है।
जनसत्ता के
अधिकतर लेखक ‘धर्म’
शब्द का प्रयोग
रिलीजन और मजहब
के रूप में
करते हैं। क्या
ये लोग पंथ
या संप्रदाय शब्द
का अर्थ नहीं
जानते? ‘धर्म’ एक
भारतीय शब्द-पद
है, इस पर
पाश्चात्य अर्थों का आरोपण
इस शब्द और
अवधारणा के साथ अन्याय
है। असहमति अवश्य
जताएं लेकिन संघ
को जानें भी।
महेश चंद्र शर्मा, अध्यक्ष, एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
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