शनिवार, 21 मार्च 2015

आत्मगौरव का प्रतीक भारतीय नव वर्ष

आत्मगौरव का प्रतीक भारतीय नव वर्ष

यह नव संवत् ही मेरा नववर्ष ! आपका नववर्ष !! प्रत्येक भारतीय का नववर्ष !!!

सोचिए 1 जनवरी तो अंग्रेजों का नववर्ष अथवा उनका नववर्ष जो अंग्रेजियत में जी रहे हैं.

जिन्हें न गुलामी का दंश पता है, न स्वतंत्रता की कीमत, जिन्हें गीता और रामायण का ध्यान  नहीं है, जिन्हें न तो हस्तिनापुर याद है, न ही दुष्यंत पुत्र भरत याद है, जिन्हें राम, कृष्ण, शिवाजी, राणाप्रताप, चन्द्रगुप्त, बुद्ध, महावीर याद नहीं तथा जिन्हें गुरू गोविन्द सिंह, चंद्र शेखर, सुभाष, भगत सिंह और रानी लक्ष्मीबाई की बलिदानी परम्परा याद नहीं. उनको ही भारत याद नहीं-अपना नववर्ष याद नहीं. याद है केवल इण्डिया और उसका न्यू ईयर. न्यू ईयर का अर्थ है जश्न, नृत्य, शराब से मनाया जाने वाला रात्रिकालीन हुड़दंग.

आत्मगौरव का प्रतीक भारतीय नव वर्ष

भारतीय नव वर्ष जैसा दुनिया के किसी नव वर्ष का आनन्दोत्सव न तो देखा गया न ही सुना गया, परन्तु अंग्रेजों की गुलामी से पनपी आत्मविस्मृति के कारण हम अनुभव ही नहीं करते कि यह आनन्द का पर्व हमारे नव वर्ष का शुभारम्भ है. विचार करने पर प्रश्न उठता है कि होली से राम नवमी तक भारत में जो आनन्द का उत्सव होता है उसका मर्म क्या है? रंग-गुलाल, हंसी-मजाक, नये वस़्त्रों को पहनकर नव सम्वत् का सुनना, 15 दिनों तक एक दूसरे से गले मिलना, मिठाई खाना और खिलाना भारतीय नव वर्ष के शुभारम्भ से पहले ही होली के पर्व के रूप में शुरू हो जाता है. नव वर्ष के पहले दिन से 9 दिनों तक नवरात्रि का विशेष पूजन शक्ति अर्जन के लिए किया जाता है. प्रकृति भी इन 20-25 दिनों में आनन्द मनाती है, पौधों में नई-नई कोपलें और पत्तियां निकलती हैं तथा बसन्त का आनन्द होता है. भारतीय नव वर्ष का लगभग चार सप्ताह  तक चलने वाला पूजनयुक्त आनन्द पर्व हमारी श्रेष्ठता और गौरव का प्रतीक है, फिर भी भारत का दुर्भाग्य है कि अपने नव वर्ष पर गर्व करने में हमें संकोच लगता है. परन्तु एक जनवरी आते ही नाच-गाना, शराब परोसना, जश्न के आधुनिक तरीकों का वीभत्स प्रदर्शन करना तथा शुभकामनाएं भेजने का दौर शुरू हो जाता है.

भारतीय काल गणना का विश्व में कोई मुकाबला नहीं है क्योंकि यह काल गणना ग्रह नक्षत्रों की गति पर आधारित है.  यहां तो प्रत्येक मास की पूर्णिमा को जो नक्षत्र होता है, उसी नक्षत्र के नाम पर महीने का नाम रखा जाता है.  चित्रा नक्षत्र के आधार पर चैत्र, विशाखा नक्षत्र के आधार पर बैसाख, ज्येष्ठा नक्षत्र के आधार पर ज्येष्ठ, उत्तराषाढा नक्षत्र के आधार पर  आषाढ़, श्रवण नक्षत्र के आधार पर श्रावण, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र के आधार पर भाद्रपद, अश्विनी नक्षत्र के आधार पर अश्विनि, कृतिका नक्षत्र के आधार पर कार्तिक, मृगशिरा नक्षत्र के आधार पर मार्गशीर्ष, पुष्य नक्षत्र के आधार पर पौष, मघा पक्षत्र के आधार पर माघ एवं उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के आधार पर फाल्गुन मास निर्धारित है.  चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण की वर्षों पूर्व की काल गणना भारतीय पंचांग में है फिर भी विक्रमी संवत् पर गर्व करने में संकोच होता है.  कुछ वर्ष पूर्व शताब्दी का सबसे बड़ा सूर्यग्रहण हुआ.  भारतीय ज्योतिष के विद्वानों ने बहुत पहले से बताना प्रारम्भ कर दिया कि अमुक दिन, अमुक समय से सूर्यग्रहण होगा,  किन्तु यूरोपीय विद्वानों ने अविश्वास का वातारण बनाना प्रारम्भ कर दिया. नासा ने 120 करोड़ रूपये खर्च करके पता किया कि भारतीय ज्योतिष में जो कहा गया है, वही ठीक है किन्तु आगे की गणनाएं भारतीय ज्योतिष के अनुसार ठीक होंगी या नहीं इस पर अविश्वास की रेखा फिर से खींच दी.

अपनी कालगणना का हम सदैव स्मरण करते हैं, परन्तु इसका हमें ध्यान नहीं रहता है. अपने घर परिवार के समस्त शुभकार्य पंचांग की तिथि से ही देखकर आयोजित करने का स्वभाव हम सभी का है. जब हम किसी नये व्यक्ति से मिलते हैं तो उसे अपना परिचय देते हैं कि हम अमुक देश, प्रदेश या गांव के निवासी हैं तथा अमुक पिता की संतान हैं. इसी प्रकार जब हम किसी शुभ कार्य को सम्पन्न करने के लिए किसी देव शक्ति का आवाहन करते हैं तो संकल्प करते समय उसे भी अपना परिचय बताते हैं. संकल्प के समय पुरोहितगण एक मंत्र बोलते हैं, जिस पर हम ध्यान तो नहीं देते परन्तु उस संकल्प मंत्र में हमारी कालगणना का वर्णन है.  मंत्रोच्चार कुछ इस प्रकार है – ऊॅं अस्य श्री विष्णु राज्ञया प्रवत्र्य मानस व्रहमणो द्वितीय पराद्र्धे, श्वेतवाराह कल्पे, वैवस्वत मनवन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलि प्रथम चरणे, जम्बूद्वीपे भरतखण्डे अमुक नाम, अमुकगोत्र आदि….. पूजनं/आवाहनम् करिष्यामऽहे.

मंत्र में स्पष्ट है कि ब्रम्हा जी की आयु के दो परार्द्धों में से यह द्वितीय परार्द्ध है, इस समय श्वेत बाराह कल्प चल रहा है,  कल्प को ब्रम्हा जी की आयु का एक दिन माना गया है, परन्तु यह कालगणना की इकाई भी है. एक कल्प में 14 मनवन्तर, एक मनवन्तर में 71 चर्तुयुग तथा एक चर्तुयुग में 43 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं. जिसका  भाग सतयुग, भाग त्रेता, भाग द्वापर तथा भाग कलियुग होता है.  इस समय वैवस्वत् नामक मनवन्तर का 28वां कलियुग है.  हमें स्मरण होगा कि महाभारत  का युद्ध समाप्त होने के 36 वर्षों बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महाप्रयाण किया था. उस समय द्वापर युग समाप्त हुआ था. यह घटना ईस्वीय सन् प्रारम्भ होने से 3102 वर्ष पहले की है. मान्यता है कि श्रीकृष्ण भगवान के दिवंगत होते ही कलियुग प्रारम्भ हो गया था, इसी कारण ईस्वीय सन् में 3102 वर्ष जोड़ने पर कलि संवत् या युगाब्द की गणना होती है.

बृह्मपुराण में यह भी लिखा गया है कि बृह्माजी ने सृष्टि की रचना भी इसी दिन की है -

’’चैत्रमासे जगदब्रह्मा ससर्ज पृथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रन्तु तदा सूर्योदये गति.’

इसी दिन सम्राट विक्रमादित्य ने श्रेष्ठ राज्य की स्थापना की थी. जिनके कारण न्याय के आसन को आज भी विक्रमादित्य का सिंहासन कहा जाता है.  विक्रम संवत् भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही प्रारम्भ होता है. इसी की भारत में सर्वाधिक स्वीकार्यता है . चैत्रशुक्ल प्रतिपदा जिस दिन (वार) को होती है. वही संवत् का राजा होता है तथा जिस वार को सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, वह संवत् का मंत्री होता है. सूर्य की अन्य संक्रान्तियों द्वारा वर्ष की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक स्थितियों का निर्धारण होता है.  भारत में होली के बाद संवत् सुनने की परम्परा को गंगा स्नान  के समान फलदायी माना गया है. इसी कारण यह संवत् भारतीय समाज व्यवस्था में समस्त संस्कारों, पर्वों एवं त्योहारों की रीढ़ है.  विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अन्य किसी कालगणना में इतनी सूक्ष्म व्याख्या है? सारी श्रेष्ठताओं के बाद भी विक्रमी संवत् भारत का राष्ट्रीय पंचांग नहीं बना यह स्वाभाविक कौतूहल का विषय है. आजादी के बाद पंडित नेहरू के द्वारा बनायी गयी पंचांग सुधार समिति इसके लिये जिम्मेदार मानी जा सकती है, परन्तु आजादी के सात दशक भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं.

अपना देश 1947 में अंग्रेजों की गुलामी से एक सीमा तक मुक्त हुआ.  स्वाधीनता के बाद हमने देश से अंग्रेजियत के सारे प्रतीक मिटाने का संकल्प लिया.  कुछ भवनों और सड़कों के नाम भी बदले गये परन्तु आधुनिक समय में किंगजार्ज मेडिकल कालेज का नाम बदलने पर एक नई बहस शुरू हो गयी. यह सब कुछ इस कारण हुआ कि संविधान की प्रथम पंक्ति में हमने अंग्रेजियत को स्वीकार करके ’’इण्डिया दैट इज भारत’’ का शब्द प्रयोग करके भारतीयता को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया. वैसे तो अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से हमसे यह काम करवा लिया, जिसे हम समझ भी नहीं पाये. इसके पीछे वही भावना काम कर रही थी, जिसका उल्लेख मैकाले ने 12 अक्तूबर 1836 को अपने पिता को लिखे एक पत्र में किया था कि आगामी 100 साल बाद भारत के लोग रूप और रंग में तो भारतीय दिखेंगे, किन्तु वाणी, विचार और व्यवहार  में अंग्रेज हो जायेंगे.  सचमुच ही आज के समाज जीवन में वेशभूषा और भाषा ही नहीं जन्मदिन, पर्व-त्योहार, विवाह संस्कार आदि समारोहों को मनाने के तौर तरीकों में भारतीयता पर अंग्रेजियत हावी हो गयी.  अपने वित्तीय वर्ष के प्रथम दिन 1 अप्रैल को हम मूर्ख दिवस मानने लगे,  ईसा के जन्मदिन को बड़ा दिन मानने लगे, वैलेन्टाइन डे और शादी की वर्षगांठ हमारे जीवन में उतर आये, परन्तु श्राद्ध पर्व भूल गया.  इसी का परिणाम है कि अंग्रेजी नववर्ष तो याद रहा, परन्तु अपना नववर्ष भी भूल गये.

गुलामी की मानसिकता से हम कहां तक दबे रहे कि सन् 1996 तक संसद में आम बजट भी अंग्रेजों की घड़ी के अनुसार प्रस्तुत करते थे.  सरकारी कार्यालय बन्द होने के लिये निर्धारित  सायं 5 बजे के समय पर बजट इसलिए प्रस्तुत किया जाता था कि इंग्लैण्ड में उस समय दिन के साढ़े ग्यारह बजे होते थे. ऐतिहासिक शब्दावली में ईसा से पूर्व (बीसी) तथा ईसा के बाद (एडी) जैसे शब्दों का प्रयोग  किया जाने लगा अर्थात् हमारी कालगणना के आधार भी ईसामसीह बन गये.   आजादी के प्रथम दिन से राष्ट्रभक्ति के भाव में कुछ कमी होने के कारण हमने स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल माउण्टवेटेन को बना दिया. उन्होंने ही हमारी ओर से प्रथम राष्ट्राध्यक्ष के रूप में किंगजार्ज के प्रति वफादारी की शपथ ली, इसी कारण 14/15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को असंख्य शहीदों के बलिदानों को धूलधूसरित करके व्रिटिश झण्डा सलामी देकर सम्मान पूर्वक उतारा गया.  अंग्रेजियत में रचे बसे और माउण्टवेटेन के प्रिय पात्र जवाहर लाल नेहरू के हाथ में देश की बागडोर तो आ गयी, किन्तु इण्डियावादी दृष्टि से भारत को मुक्ति नहीं मिल सकी. उसी का परिणाम था कि जब 1952 में प्रो  मेघनाद साहा की अध्यक्षता में पंचांग सुधार समिति बनी तो उसने भी भारतीयता को आगे बढ़ने से रोक दिया.  भले ही प्रो साहा ने पंचांग का निर्धारण करते समय कहा था कि वर्ष का आरम्भ किसी खगोलीय घटना से होना चाहिए. उन्होंने ग्रेगेरियन कैलेण्डर के विभिन्न महीनों में दिनों की संख्या में असंगतता पर सवाल भी उठाये थे, किन्तु जब पंचांग सुधार समिति की रिपोर्ट देश के सामने आयी तो पता चला कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उपयुक्त मानकर नितांन्त  अवैज्ञानिक शकसंवत को राष्ट्रीय पंचांग तथा ग्रेगेरियन कैलेण्डर को अन्तर्राराष्ट्रीय कैलेण्डर की मान्यता दे दी गयी.  वस्तुतः यह सब कुछ अंग्रेजो को बड़ा दिखाने  के लिए किया गया, क्योंकि शकसंवत् ग्रेगेरियन कैलेण्डर से 79 वर्ष छोटा है, जबकि विक्रम संवत्  57 वर्ष बड़ा है.  ऐसी स्थिति में यदि विक्रमी संवत् को समिति राष्ट्रीय पंचांग बना देती तो अंग्रेज आकाओं के नाराज होने का खतरा था.

कितना हास्यास्पद है कि शकसंवत् में प्रथम दिन का निर्धारण करने के लिए ही ग्रेगेरियन कैलेण्डर का सहारा लिया गया है, क्योंकि शकसंवत् में वर्ष का आरम्भ ही 22 मार्च से होता है, परन्तु लीप वर्ष में वर्ष का आरम्भ 21 मार्च से ही माना जाता है.  वर्ष में कुल 365 दिन होते हैं, जबकि लीप ईयर में 366 दिन होते हैं .यही व्यवस्था ग्रेगेरियन कैलेण्डर में भी है .  शकसंवत् में चैत्र 30 दिन तथा उसके बाद के 5 महीने 31 दिन और अन्त के 6 महीने 30-30 दिनों के होते हैं, जबकि लीप वर्ष में चैत्र भी 31 दिन का ही होता है. लगभग यही स्थित ग्रेगेरियन कैलेण्डर की है. इन दोनों पंचांगों में 365 दिन 6 घण्टे का हिसाब तो है जबकि पृथ्वी अपनी धुरी पर 365 दिन 6 घंण्टे 9 मिनट और 11 सेकेण्ड में सूर्य का एक चक्कर लगाती है यही वास्तविक वर्ष होता है. इन पंचांगों में 9 मिनट 11 सेकेण्ड को कोई हिसाब नहीं है. ग्रेगेरियन कैलेण्डर इससे भी अधिक हास्यास्पद है उसका मुख्य आधार रोमन कैलेण्डर है जो ईसा से 753 साल पहले प्रारम्भ हुआ था. उसमें 10 माह तथा 304 दिन थे उसी के आधार पर सितम्बर सातवां, अक्तूबर 8वां, नवम्बर 9वां तथा दिसम्बर 10वां महीना था. 53 साल बाद वहां के शासक नूमापाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी जोड़कर 12 महीने तथा 355 दिनों का रोमन वर्ष बना दिया.  जिसमें सितम्बर 9वां, अक्तूबर 10वां, नवम्बर 11वां, और दिसम्बर 12वां महीना हो गया.  ईसा के जन्म से 46 साल पहले जूलियस सीजर ने रोमन वर्ष 365 दिनों का कर दिया. 1582 ई0 में पोपग्रेगरी ने आदेश करके 4 अक्तूबर को 14 अक्तूबर कर दिया.  मासों में दिनों का निर्धारण भी मनमाने तरीके से बिना किसी क्रमवद्धता का ध्यान रखते हुए कर दिया गया, किन्तु इन सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन्हीं पंचांगों को हमने स्वतंत्र भारत में गणना का आधार मानकर भारतीय पंचांग की उपेक्षा कर डाली.

जरूरत इस बात की है कि भारत अपने आत्मगौरव को पहचाने तथा अपने नववर्ष को धूमधाम से सामाजिक और राजकीय स्तर पर मनाये जाने का प्रबन्ध हो.  यह सीधे-सीधे राष्ट्र की अस्मिता   से जुड़ा हुआ प्रश्न है.  हमें ध्यान रखना चाहिए कि 2001 में कुछ लोगों ने ईरान में अंग्रेजी नववर्ष मनाने का प्रयास किया था, जिसके कारण उन्हें 50-50 कोड़े मारने की सजा दी गयी थी.  भारत इस प्रकार का देश तो नहीं है कि किसी को कोड़े मारकर ठीक किया जा सके.  परन्तु चेतना का जागरण आवश्यक है. दुनिया के देश अपने-अपने नववर्ष पर गर्व करते हैं फिर हम उधार के नववर्ष पर क्यों गर्व करें इसका विचार करने की जरूरत है.

आइये अपने पर गर्व करें – नवरात्रि के प्रथम दिन नववर्ष की शुभकामनाएं दें.

साकेन्द्र प्रताप वर्मा, स्वतंत्र लेखक/स्तम्भकार
साभार: vskbharat.com

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित