सोमवार, 6 अप्रैल 2015

अपनी बात :खुलासा हो, यही वक्त है


पीयू शोध केंद्र की ताजा रपट कहती है कि वर्ष 2050 तक ईसाई मत के अनुयायियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक होगी। इसके करीबी मुकाबले में होगा इस्लाम। इस अध्ययन के अनुसार आने वाले 35 वर्ष में विश्व की आधी से
अधिक, करीब 60 प्रतिशत जनसंख्या इन दो मतों को मानने वालों की होगी। वैसे, इसी शोध का निष्कर्ष यह भी है कि भारत में हिन्दू धर्म-संस्कृति को मानने वालों की बहुलता तब भी होगी और हिन्दू विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आबादी होंगे।

लेकिन कल्पना कीजिए उस समय की जब दो किताबों को आगे रखे लोग सिर्फ अपनी बात और उन्हीं पन्नों पर गुत्थमगुत्था होंगे, जो मानवता के लिए प्रेम की बात तो करते हैं परंतु उन्हें अपने-पराए, मजहबी और काफिर जैसे
खांचों में बांटकर देखते हैं! दरअसल, इस्लाम और ईसाइयत का टकराव सुनिश्चित है और इस टकराव के सूत्र इनकी अपनी-अपनी 'पवित्र पुस्तकों' से निकले हैं। 

जहां लोग और दुनिया का भूगोल, अपने-पराए में बंटा है, मानवता जहां मजहब के सामने गौण है, वहां इस टकराव के टलने की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं! कट्टर मजहबी झुकावों में बंटती दुनिया की कल्पना भारत के संदर्भ में और ज्यादा भयावह है। यह खुला सच है कि अपनी विपुल जनसंख्या और इसके हिन्दू जीवन दर्शन
वाला भारत, कट्टर मजहबी फैलाव वाली विदेशी विचारधाराओं के लिए संभावनाओं का बड़ा मैदान रहा है और आज भी है। यही कारण है कि सहिष्णु जीवन को जीसस और इस्लाम की धाराओं में धकेलने के षड्यंत्र यहां मजहबी कर्तव्य से 'मार्केटिंग' के हथकंडों तक पहुंचते हैं। लेकिन ज्यादा खतरनाक बात यह है कि विश्व बंधुत्व का भाव रखने वाले जीवन दर्शन पर सदियों से हो रहे इस मजहबी अत्याचार को छिपाने-दबाने और अलग ही तरह से दिखाने के षड्यंत्र होते हैं। 

जिस दौर में हिन्दू जनता, राजा और गुरुओं की गर्दनें उड़ाते मुगल शासक अपने पागलपन में 'इस्लामी कर्तव्य' को पूरा कर रहे थे, नरमुंडों की मीनारें खड़ी करने वाले पैशाचिक अट्टहास लगा रहे थे, भारतीय संस्कृति पर बर्बर
कबायली हमले के उस दौर को सभ्यताओं के ऐसे मिलन के तौर पर पेश किया जाता है जिससे भारत को बहुत कुछ मिला। लाजवाब मुगलई खाने, बूटेदार महीन नक्काशी और कव्वालियों के ऐसे झूमते-सुरमई दौर का खाका खींचा जाता है जब फाख्ता उड़ाने वाले नर्म दिल बादशाहों को सिर्फ अमन-ओ-अमान की फिक्र थी और उनके
दिलों में आवाम के लिए बेपनाह दर्द उमड़ता रहता था।

जिस दौर में भारत में अंग्रेजी राज जनता पर अत्याचार की सारी हदें तोड़ रहा था, भारतमाता की जय और वंदेमातरम् का नारा लगाने वालों को चौराहों पर फांसी दी जा रही थी; जिस दौर में एक ओर निहत्थे लोगों को जनरल डायर जैसे कसाई गोलियों से भून रहे थे और दूसरी तरफ कुओं में ब्रेड के टुकड़े डालकर, पानी पर जीसस की 'प्लास्टिक' की प्रतिमा तैराकर, जमीन से मरियम की मूर्ति प्रकट कर भोली शक्ल बनाए पादरी जनता को पुचकारता, उसे अपनी छांव में शामिल करता चलता है 

उसे नेमतों का दौर बताया जाता है। शिक्षा, रेलवे, नौकरशाही, सभ्य अंंग्रेजों ने क्या कुछ नहीं दिया! 
क्या इतिहासकार इतिहास बदल सकते हैं?
क्या मीडिया सच बदल सकता है?
क्या सच को झुठलाने का यह खेल यूं ही जारी रह सकता है?

भारत में मुस्लिम जनता पर अत्याचार की खबरें जब उड़ती हैं तो झूठ पर कोफ्त होती है। भारत में ईसाइयों पर अत्याचार का हल्ला जब मीडिया में सुर्खियां बटोरता है तो दु:ख होता है। भारत असहिष्णु देश है, जब यह प्रचारित करने का प्रयास होता है तो क्षोभ होता है।

यदि यह भूमि अपने मूल स्वभाव में सहिष्णु नहीं होती तो क्या कोई और यहां पनप सकता था? केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार का एक वर्ष पूरा होने को है। यह सरकार पूर्व की अन्य सरकारों से इस मामले में अलग है कि इसके मूल में भारतीयता का विचार स्थापित है। यह विचार कुछ लोगों को एक वर्ष से परेशान किए हुए है। सेकुलर टोलियों की नींद हराम है। कबायली सोच के पैरोकार परेशान हैं। लोगों को भोली भेड़ की तरह अपने झुंड में हांक ले जाने वाले परेशान हैं। बंगलादेशी घुसपैठ और कश्मीरी हिंदुओं का निर्वासन जहां मुद्दा नहीं है, वहां आगरा में कुछ लोगों की घरवापसी राष्ट्रीय चिंता है।

रामकृष्ण मिशन की साध्वी से सामूहिक बलात्कार जहां खबर नहीं है, वहां रानाघाट में नन से बलात्कार राष्ट्रीय बहस का विषय है। चर्च या इस्लाम, कट्टरता भारत को मंजूर नहीं। यह ढकोसलों के खुलासे का वक्त है। झूठ को बेनकाब होना ही है। यह सच का वक्त है। यह हम सब के जागने का वक्त है। 

पाञ्चजन्य के ताजा अंक में सम्पादक  हितेश शंकर का सम्पादकीय 
 

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित