गुरुवार, 25 जून 2015

आपातकाल के 40 वर्ष - भरे नहीं हैं जख्म आज भी




तत्कालीन केन्द्र सरकार ने अपने  राजनीतिक विरोधियों सर्वश्री जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चन्द्रशेखर, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और रा. स्व. संघ के वरिष्ठ अधिकारियों को चुन-चुन कर जेल भिजवा दिया, लेकिन देश में इन्दिरा की तानाशाही और अत्याचार के विरुद्ध लोगों का आंदोलन
भीतर ही भीतर सुलगने लगा था। लोगों की जनसभाएं कांग्रेस की कुरीतियों के विरुद्ध जारी थीं। आपातकाल हटने के बाद कांग्रेस की आम चुनाव में हुई करारी हार ने न केवल इन्दिरा गांधी के तिलिस्म को तोड़ दिया, बल्कि बड़े-बड़े धुरंधरों को मुंह की खानी पड़ी। आज आपातकाल के 40 वर्ष बाद भी उसका दंश झेल चुके लोगों की आंखें भर आती हैं। आपातकाल के उस कालिमा भरे अध्याय को स्मरण कराती पाञ्चजन्य की रपट...

25 जून, 1975 की अर्द्धरात्रि में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी द्वारा लगवाए गए आपातकाल के 40 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। उस दौरान पुलिस-प्रशासन द्वारा प्रताड़ना का शिकार हुए लोग आज भी आपातकाल की भयावह कारा के बारे में सोचकर कांप उठते हैं। उन पर हुए अत्याचारों, दमन और अमानवीय कृत्यों के जख्म आज भी ताजा हैं। 

आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा लोकसभा चुनाव में अयोग्य ठहराए जाने के फैसले से तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी इस कदर बौखला गई थीं कि उन्होंने आपातकाल लगवा दिया। आपातकाल की इस आपाधापी में पुलिस भूमिका किसी खलनायक से कम न था क्योंकि अपने ही देश की पुलिस के अत्याचार ब्रिटिश राज के अत्याचारों को भी मात दे रहे थे। जो जहां, जिस हालत में मिला उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। चप्पे-चप्पे पर पुलिस के सीआईडी विभाग वाले नजर बनाए रहते थे। 

देश के नामीगिरामी राजनेताओं को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया, आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और लगभग प्रत्येक परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा। वे लोग हर दिन अपना ठिकाना बदलने को विवश थे। मीडिया पर पाबंदी लगाकर सरकार ने खूब मनमानी की। आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया। शहर से लेकर गांव-गांव तक नसबंदी शिविर लगाकर लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए। 

प्रस्तुति : राहुल शर्मा, आदित्य भारद्वाज, अजय मित्तल एवं सुरेन्द्र सिंघल


पुलिस का अमानवीय चेहरा आज भी याद है  मेरठ के प्रदीप कंसल आपातकाल की तानाशाही का विरोध कर 'मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट' (मीसा) बंदी बनने वाले सबसे छोटी आयु के छात्र थे। वे तब स्नातक द्वितीय वर्ष के छात्र थे जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से उन्होंने ऐसा किया। बंदी बनाकर उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें नारकीय यातनाएं दीं। पुलिस उनसे रा. स्व. संघ., प्रचारकों तथा अन्य कार्यकर्ताओं की जानकारी हासिल करना चाहती थीं। 

विशेषकर रा. स्व. संघ. के मेरठ विभाग के तत्कालीन प्रचारक ज्योति जी (अब दिवंगत ), जो कुलदीप के नाम से भूमिगतअभियान चला रहे थे।  प्रदीप ने अल्पायु में भीषण शारीरिक अत्याचार सहे पर मुंह नहीं खोला। एक साल से अधिक कारावास में रहकर 1977 के आम चुनाव की घोषणा के बाद वे रिहा हुए तो मेरठ से अमेठी जा पहुंचे- संजय गांधी के विरुद्घ प्रचार करने और उनकी पराजय के बाद ही घर लौटे। 

रौंगटे खड़े कर देने वाली आपबीती...

 मैं  मेरठ कॉलेज में बी़ ए. का छात्र था, उस समय मैंने 29 जनवरी, 1976 को इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ सत्याग्रह किया। मैं तब रा. स्व. संघ. का स्वयंसेवक और विद्यार्थी परिषद की कॉलेज इकाई का संयोजक था। उस दिन मैं अपने कपड़ों में आतिशबाजी के बम की बहुत सारी लडि़यां छिपाकर ले गया था। 'बहरी सरकार को अपनी बात सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत है'-सरदार भगतसिंह का ये कथन मन में गूंज रहा था। 

जैसे ही दिन का दूसरा कालांश खत्म हुआ, मैं कक्षा से बाहर निकल आया। फिर एक-एक कर पटाखों की लडि़यां जलाकर धमाके कि ए। सारे कॉलेज में सनसनी फैल गई। हजारों छात्र कक्षाएं छोड़कर आसपास एकत्र हो गए। मैंने आपातकाल और इंदिरा की तानाशाही के विरुद्ध नारे लगाने शुरू किए जिन्हें विद्यार्थियों का भरपूर समर्थन मिला और पूरा महाविद्यालय नारों से गूंजने लगा। इसके बाद आपातकाल के विरोध में मैंने संक्षिप्त भाषण दिया कि तभी दो पुलिस वाले डंडे लेकर आ धमके। उन्होंने गालियां देते हुए छात्रों को वहां से भाग जाने के लिए कहा। फिर वे उन पर डंडे भी बरसाने लगे। 

विद्यार्थियों को गुस्सा आ गया। उन्होंने पुलिस वालों से डंडे छीनकर उन्हीं की पिटाई शुरू कर दी। मैंने चिल्ला-चिल्लाकर छात्रों को रोका, लेकिन  पुलिस वालों के द्वारा ताबड़तोड़ लाठियां बरसाए जाने के कारण कोई नहीं टिका। ऐसा कुछ देर और चलता रहता तो शायद वे जीवित नहीं बचते। मैंने आव देखा न ताव, उन्हें बचाने के लिए उनके ऊपर लेट गया, तब जाकर कहीं लाठी के प्रहार रुके। इसके बावजूद भी इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ गगनभेदी नारों का दौर जारी रहा। तभी मेरठ के पुलिस उपाधीक्षक व सहायक नगर मजिस्ट्रेट सैकड़ों पुलिसवालों के साथ कॉलेज में घुसे। सात-आठ पुलिस वालों ने मुझे घसीटते हुए एक जीप में डाल दिया। दूसरे छात्रों पर भी लाठीचार्ज शुरू हो गया। कई के सिर फूटे, हाथ टूटे और कई चोटिल हुए, तब कहीं जाकर भीड़ हट सकी। दोपहर करीब 12 बजे मुझे समीपवर्ती लालकुर्ती थाने ले जाया गया। वहां मुझसे मेरे अन्य साथियों के बारे में पूछा गया। जवाब देने से मना करने पर एक दरोगा ने कहा कि इसे सिविल लाइन थाने ले चलो, वहां अच्छे से पूछेंगे। आबादी वाले इलाके से बाहर ले जाकर उस थाने में रात को मुझे खूंखार अपराधियों से पूछताछ
करने वाले विशेष पुलिस दस्ते के हवाले कर दिया गया। उनकी शुरुआत ही डराने-धमकाने से हुई। रा. स्व. संघ. के प्रचारक, कार्यकर्ता, मुझे सत्याग्रह हेतु प्रेरित करने वालों एवं मेरे साथियों के बारे में पूछा गया। 

 मैंने हर सवाल के जवाब में यही कहा कि मैं अकेला ही अपने विवेक से आपातकाल का विरोध करने निकला हूं। प्रश्नकर्ताओं का धैर्य जल्दी ही टूट गया। इसके बाद मुझे निर्वस्त्र कर थाने के फर्श पर उल्टा डाल दिया गया। मेरे पांव फैलाकर पांच पुलिस वाले मेरी पीठ पर खड़े हो गए। मैं समझ गया कि यातना का दौर शुरू होने जा रहा है। मैंने एक हाथ से फर्श की मिट्टी अपने माथे पर लगाई और भारत मां का स्मरण कर यातनाओं को सहने की शक्ति मांगी। 

पुलिस वाले अपने जूतों से मेरा बदन कुचल रहे थे और अपने सवाल दोहरा रहे थे। फिर दो अन्य पुलिस वाले मेरी दोनों हथेलियों पर खड़े होकर उन्हें भी कुचलने लगे। इस तरह सात यमदूत मुझे यम यातनाएं दे रहे थे। मेरे चुप्पी साध लेने से वे चिढ़ गए। फिर मेरी कोहनियों, कलाइयों, घुटनों, पांव की हड्डियों व तलवों पर लाठी-जूते बरसने लगे। कुछ देर असहनीय यातनाओं का दौर चला, फिर शरीर ऐसा सुन्न हो गया कि लगता था कि जहां चोट पड़ती थी, वह शरीर का हिस्सा ही नहीं है। गला सूख गया, मैं कुछ बोल नहीं सका और बेहोश हो गया। कितने घंटे अचेत रहा, कह नहीं सकता। फिर तीन-चार पुलिस वाले मुझे उठाकर चलाने की कोशिश कर रहे थे। 

कोई बोला चलेगा कैसे, दो बार तो खून की उल्टी कर चुका था। फिर उन्होंने मुझे कुर्सी पर बैठा दिया। मैं अधमरा सा था। देर रात कोई बड़ा अधिकारी आया और उसने आते ही पुलिस वालों से पूछा कि इसने कुछ बताया?  नकारात्मक जवाब सुनते ही उसने मेरे नाखून उखाड़ने के लिए प्लास मांगा। मेरे मन  में कितने ही क्रांतिकारियों के प्रसंग उमड़ पडे़, मैंने सोचा मेरी भी वैसी ही परीक्षा ली जा रही है, लेकिन दृढ़ निश्चय किया कि झुकना नहीं है। कुछ पुलिस वालों ने मेरा शरीर पकड़ा  और अधिकारी हाथ में प्लास लेकर आ गया। मेरे दायें पांव के अंगूठे को प्लास से दबाकर उसने नाखून खींच लिया और मैं बेहोश हो गया। 

सुबह जब होश आया तो मुझे न्यायालय लेकर जाने की तैयारी चल रही थी। पांव के अंगूठे व शरीर में अनेक जगह से खून रिस रहा था। पुलिस की पिटाई से शरीर ऐसा सूज चुका था कि कपडे़ पहने नहीं जा रहे थे। कमीज के बटन बंद नहीं हो सके। जूते पहन नहीं सका। न्यायालय पहंुचकर बिना न्यायिक मजिस्टे्रट के यहां पेश किए बिना मुझे जेल भेज दिया गया। 

जेल में दूसरे स्वयंसेवक मिले तो कुछ सुकून मिला, लेकिन सभी को अलग-अलग रखा गया। फरवरी, 1977 में आम चुनावों की घोषणा हुई और मैं अन्य साथियों सहित जेल से बाहर आ गया। मैं आपातकाल के 39 वर्ष बाद भी यातनाआंे को नहीं भुला पाया हूं। आज भी मेरा हाथ और पीठ सीधे नहीं हो पाते हैं, दायें पांव के अंगूठे पर नाखून नहीं आता है।

प्रदीप कंसल ने जेल से छूटने के बाद वर्ष 1978 में आपातकाल प्रताड़ना को लेकर गठित शाह आयोग में 10 अगस्त, 1978 को उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर उन्हें यातनाएं देने वाले पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की मांग की थी। लेकिन आज तक उन्हें नहीं मालूम कि उन अधिकारियों पर सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई की भी या नहीं। 

वे बताते हैं कि आपातकाल के दौरान पीडि़त परिवार के साथ-साथ उनके साथ संपर्क रखने वाले दूसरे लोगों को भी पुलिस प्रताड़ना का सामना करना पड़ता था। साथ रहने वाला ही नहीं, बल्कि के शक के आधार पर भी पुलिस लोगों को जबरन पूछताछ के लिए अज्ञात स्थानों पर ले जाकर सख्ती करती थी। पुलिस के भय से लोेगों में इस कदर दहशत हो जाती थी कि वे दोबारा अपने परिचित के यहां जाने का नाम भी नहीं लेते थे। ऐसे में जेल में बंद व्यक्ति का पूरा परिवार अलग-थलग पड़ जाता था।


मेरठ के प्रदीप कंसल आपातकाल की तानाशाही का विरोध कर 'मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट' (मीसा) बंदी बनने वाले सबसे छोटी आयु के छात्र थे। वे तब स्नातक द्वितीय वर्ष के छात्र थे जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से उन्होंने ऐसा किया। बंदी बनाकर उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें नारकीय यातनाएं दीं। पुलिस उनसे रा. स्व. संघ., प्रचारकों तथा अन्य कार्यकर्ताओं की जानकारी हासिल करना चाहती थीं। 

विशेषकर रा. स्व. संघ. के मेरठ विभाग के तत्कालीन प्रचारक ज्योति जी (अब दिवंगत ), जो कुलदीप के नाम से भूमिगत अभियान चला रहे थे।  प्रदीप ने अल्पायु में भीषण शारीरिक अत्याचार सहे पर मुंह नहीं खोला। एक साल से अधिक कारावास में रहकर 1977 के आम चुनाव की घोषणा के बाद वे रिहा हुए तो मेरठ से अमेठी जा
पहुंचे- संजय गांधी के विरुद्घ प्रचार करने और उनकी पराजय के बाद ही घर लौटे।


 साभार:पाञ्चजन्य 

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित