बुधवार, 29 जुलाई 2015

नेहरू के समाजवाद से चरमराया भारतीय उद्योग

नेहरू के समाजवाद से चरमराया भारतीय उद्योग
  सतीश पेडणेकर


हमारे देश में चीनी सामान जिस तेजी के साथ अपनी पकड़ बढ़ाता जा रहा है वह हैरान करने वाली है। 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सामूहिक योग में इस्तेमाल हुई चटाइयां चीनी ही थीं। चीन का सामान बाजार में जितनी आसानी से उपलब्ध है उतनी आसानी से तो भारतीय सामान भी उपलब्ध  नहीं है।

पिछली दीपावली पर अपने एक पड़ोसी के घर जाना हुआ। वे बहुत भक्तिभाव से और शास्त्रोक्त पद्धति से लक्ष्मी पूजन करते हैं। लेकिन उनके घर जाकर मैं हक्का-बक्का रह गया। सारे धार्मिक विधि-विधान के साथ पूजन करने वाले हमारे इन पड़ोसी महाशय के यहां जिन लक्ष्मी और गणेश की प्रतिमाओं का पूजन हो रहा था वे चीन में बनी थीं। उन्होंने पूजास्थल के आसपास जो छोटे बल्बों की माला लगाई थी वह भी चीन में बनी थी। हमारे देसी भारतीय त्योहारों पर चीन में बनी मूर्तियों का प्रचलन मेरे लिए एक भावनात्मक सदमा था, लेकिन इसमें कोई नई बात नहीं थी। हम भारतीय अपने त्योहारों को चीनी सामान के साथ मनाने के आदी होते जा रहे हैं। दीपावली पर हमें लक्ष्मी की मूर्ति, राखी के त्योहार पर चीन में बनी राखी या होली पर चीन में बनी पिचकारियों का प्रयोग करने से गुरेज नहीं होता। चीनी हमारे देवताओं की प्रतिमाएं अपने तरीके से बनाने लगे हैं। हाल ही में रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा था-'मैंने गौर किया कि हमारी गणेश मूर्तियों की आंखें छोटी से छोटी होती जा रही हैं। मूर्ति के पीछे देखा तो मेड इन चाइना लिखा हुआ था।'

हमने कभी सोचा ही नहीं कि कम से कम भारतीय त्योहारों पर तो हम भारतीय सामानों का प्रयोग करें। लेकिन
किसी को दोष देना निरर्थक है। सारे बाजार तरह-तरह के चीनी सामान से पटे पड़े हैं और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सस्ता होने के साथ-साथ वह आकर्षक  और  नवीनतापूर्ण भी होता है। यह अलग बात है कि वह टिकाऊ  नहीं होता। लेकिन हर तरह का उपभोक्ता सामान हाजिर है-बोलिए, क्या-क्या खरीदंेगे?

यह एक तरह से हमारे प्रति वैर भाव रखते आ रहे चीन का भारत की अर्थव्यवस्था पर परोक्ष हमला है, भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला करने की एक चाल है। हम इस चाल में फंसते जा रहे हैं। चीन हमारे बाजारों पर कब्जा कर हमें हमारे घर में घुसकर चुनौती दे रहा है। लेकिन हम हैं कि शुतुरमुर्ग की तरह समस्या को नजरअंदाज करते चले जा रहे हैं। हम चीन के बाजार में घुसकर अपना सामान बेचने की महत्वाकांक्षा पालना तो दूर, अपने ही देश के बाजार में चीन के मुकाबले अपना माल नहीं बेच पा रहे।

यूं तो भारतीय बाजारों में सर्वव्यापी चीनी सामान के मुद्दे को यह कहकर टाला जा सकता है कि वैश्वीकरण का जमाना है, सभी देश एक-दूसरे के घरेलू बाजारों में माल बेच रहे हैं तो फिर चीन के माल को लेकर यह रोना किसलिए। आज सारी दुनिया एक बाजार है जिसमें जो माल उपभोक्ताओं को उनके पैसे का मूल्य देगा वह बिकेगा। वही बाजार पर छा जाएगा। आखिर चीनियों ने भारतीय माल को भारतीय बाजारों में बेचने पर कोई पाबंदी तो नहीं लगाई है। लेकिन भारत में ऐसा सस्ता और आकर्षक माल बन कहां रहा है, जो चीन के माल से होड़ ले सके?

अजीब बात है कि एक तरफ तो हमारे देश में करोड़ों बेरोजगार हैं, मगर हम उनकी क्षमताओं का उपयोग कर आम जरूरतों की पूर्ति तक का सामान भी नहीं बना पा रहे हैं जबकि इसमें कोई जोखिम भी नहीं है, क्योंकि बाजार तो है ही, तभी तो चीन अपना माल धड़ल्ले से बेच रहा है। पर हम बस टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं। कुछ जानकार लोगों का कहना है कि चीनी माल के बढ़ते चलन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया है। चीन की आक्रामक व्यापार नीति के कारण चीनी माल भारतीय बाजार पर छा गया है। होना यह चाहिए था कि भारतीय व्यापारी ऐसे माल से बाजार को पाट देते जो चीनी माल की टक्कर ले सके। लेकिन हमारे देश के उद्योगपतियों ने पलायनवादी नीति अपनाई।

नतीजतन हजारों लघु और मध्यम श्रेणी के उद्योग बंद हो गए। हमारी राजनीति या आर्थिक जगत में यह बात कभी मुद्दा ही नहीं बन पायी कि भारत जैसा आर्थिक महाशक्ति बनने के हसीन सपने देखने वाला देश अपने ही देश में चीन के सामानों का मुकाबला क्यों नहीं कर पा रहा। चीन के साथ सीमा विवाद पर बढ़-चढ़कर बोलने वाले राजनीतिक नेताओं का ध्यान इस मुद्दे पर कभी जाता ही नहीं।

कुछ समय पहले एक जाने-माने अर्थशास्त्री ने एक अखबार में खुला पत्र लिखकर इस मुद्दे पर एक स्पष्ट टिप्पणी की थी कि भारत श्रमोन्मुख विनिर्माण के क्षेत्र में मार खा रहा है। हमारे उद्योग जगत के कर्णधार अपने ढर्रे को बदलना नहीं चाहते। वे सिर्फ वही करते रहना चाहते हैं जो वे करते रहे हैं यानी ऊंची पूंजी वाले उद्योग चलाना चाहते हैं, जैसे ऑटोमोबाइल, आटो पार्ट्स, मोटर साइकिल, इंजीनियरिंग उत्पाद, केमिकल्स या कुशल श्रमोन्मुख सामान जैसे कि साफ्टवेयर, टेलीकम्युनिकेशन, फार्मास्यूटिकल आदि। लेकिन देश में जो विशाल अकुशल श्रमशक्ति है उसका उपयोग करने वाले उद्योगों को चलाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यही कारण है कि भारत चीन के साथ गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति या राखी बनाने के मामले में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा।

यदि भारतीय उद्योगपति श्रमोन्मुख उद्योगों में दिलचस्पी नहीं ले रहे तो इसके बीज कहीं और नहीं, इतिहास में हैं। वे खासकर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के शासन की नीतियों में छुपे हुए हैं। उनके कारण भारत इस मोर्चे पर चीन से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा है। दरअसल आजाद भारत का इतिहास बड़े तथा पूंजी पर आधारित उद्योगों के वर्चस्व और श्रम पर आधारित उद्योगों की घोर उपेक्षा का इतिहास है। बात तब की है जब देश आजाद हुआ था और पूर्ववर्ती सोवियत संघ के समाजवादी विकास मॉडल से प्रभावित पंडित नेहरू  पंचवर्षीय योजनाओं के जरिये देश का नियोजित विकास करना चाहते थे।

वे कोलकाता के एक सांख्यिकी विशेषज्ञ से भी बहुत प्रभावित थे, जिनका नाम था प्रशांत चंद्र महालनोबिस। नतीजतन उन्होंने महालनोबिस को भारत सरकार का मानद सांख्यिकी सलाहकार बना लिया। नेहरू पर महालनोबिस का प्रभाव ऐसा बढ़ता गया कि नेहरू ने उनसे दूसरी पंचवर्षीय योजना का मसौदा तैयार कराया जिसमें महालनोबीस ने अपने और नेहरू के निवेश के बारे में  समाजवादी नजरिये यानी निजी क्षेत्र की कीमत पर विशाल सरकारी क्षेत्र के निर्माण पर बल दिया। मतलब उन्होंने उपभोक्ता वस्तुआंे के उद्योगों की कीमत पर भारी उद्योगों को बढ़ावा दिया गया। इसके अलावा निर्यात को प्रोत्साहन देने के बजाय आयात को महत्वपूर्ण बना दिया गया। इसी कारण छोटे और उपभोक्ता सामानों के उद्योगों की कीमत पर भारी उद्योग लगाने का प्रचलन हो गया।


तब जाने-माने अर्थशास्त्री सी.एन. वकील और ब्रह्मानंद ने उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन देने वाला वैकल्पिक मॉडल पेश किया था, लेकिन वह न तो चकाचौंध वाला था,  न ही महालनोबिस मॉडल की तरह तकनीकोन्मुख था। लेकिन वह भारत जैसे विकासशील देश के लिए ज्यादा अनुकूल था। इसके पीछे सोच यह थी कि हमारे  देश में पूंजी की कमी है मगर  विशाल जनबल होने के कारण उनसे कम पूंजी लगाकर उत्पादक काम कराया जा सकता है। लेकिन नेहरू और अन्य नेताओं को औद्योगिक विकास का यह रास्ता आकर्षक नहीं लगा। उन्हें महालनोबिस का औद्योगिक भारत का सपना ज्यादा रास आया।

दूसरी तरफ देश के बड़े पूंजीपतियों ने भी 1944 के 'बॉम्बे प्लान' को स्वीकार करके अपने पांवों पर ही कुल्हाड़ी मार ली। इस प्लान में तीव्र गति से औद्योगिकीकरण की बात कही गई थी। इसके अलावा वे निजी उद्योगों पर आयात छूट की सीमाएं लगाने पर सहमत हो गए। इससे भी बुरी बात थी कि वे मूल्य तय करना, लाभांश तय करना, विदेशी व्यापार और विदेशी विनिमय पर नियंत्रण, उत्पादन के लिए लाइसेंस आदि सरकारी नियंत्रणों को स्वीकार करने में कामयाब हो गए। उन्हें शायद तब पता नहीं था इस सबके कितने गंभीर नतीजे होंगे। लेकिन इस तरह उन्होंने अपनी कब्र खुद खोद ली थी। ये सारे अधिकार पाकर सरकार तो माई-बाप सरकार हो गई, जो लाइसेंस-कोटा आदि महत्वपूर्ण चीजें बांटने लगी और पूंजीपतियों का लाइसेंस लेने के लिए सरकार-नेताओं के साथ जुड़ना जरूरी हो गया। भारत सरकार का झुकाव बड़े उद्योगों की स्थापना की तरफ था। लेकिन सरकार खुद जो उद्योग नहीं लगाना चाहती थी उसका लाइसेंस वह निजी क्षेत्र को दे देती थी। मगर उसके लिए जरूरी था सरकार के नेताओं से नजदीकी होना। लेकिन इस सबका नतीजा यह हुआ कि सरकारी और निजी क्षेत्र, दोनों में बड़ी पूंजी वाले उद्योगों का लगना जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि श्रम प्रधान उद्योगों की  उपेक्षा हुई।

भारत के मौजूदा विकास की सबसे बड़ी  खामी ही यही है कि विकास की उच्च दर हासिल करने के बावजूद श्रमोन्मुख औद्योगिक क्रांति यहां नहीं आई। यदि ऐसा होता तो इसका लाभ उन लोगों को मिलता जो ग्रामीण क्षेत्र में अब भी गरीबी के दलदल में फंसे हुए हैं। हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद में  कृषि और औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र का योगदान कहीं ज्यादा है। लेकिन जब तक बड़े पैमाने पर श्रमोन्मुख औद्योगिक क्रांति नहीं जुड़ती, विकास को समवेत विकास नहीं कहा जा सकता।

दरअसल भारतीय संदर्भ में समवेत विकास तभी हो सकता है जब श्रमोन्मुख अत्पादन के जरिये टिकाऊ और तीव्र विकास हासिल किया जाए और लोगों को उत्पादक रोजगार दिलाया जाए। हाल ही में हुए एक अध्ययन के मुताबिक 85 प्रतिशत भारतीय परिधान उद्योग मजदूर छह-सात श्रमिकों वाली छोटी इकाइयों में काम करते हैं, जबकि चीन में केवल ़ 06 प्रतिशत मजदूर इस तरह की इकाइयों में काम करते हैं। दूसरी तरफ 57 प्रतिशत चीनी मजदूर 200 से ज्यादा श्रमिकों वाली बड़ी इकाइयों में काम करते हैं। उल्लेखनीय है कि चीन में मध्यम दर्जे
की कंपनियों की संख्या अच्छी-खासी है, लेकिन भारत में इस तरह की इकाइयां गिनती की हैं। चीन को पटखनी देनी है तो हमें अपने लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों को बढ़ावा देना होगा।
साभार:: पाञ्चजन्य

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित