मंगलवार, 1 सितंबर 2015

अपनी बात :भेद पाटने का पाठ

अपनी बात :भेद पाटने का पाठ

अपनी बात :भेद पाटने का पाठ

                                                                    हितेश शंकर 

'धार्मिक भाव इस तरह स्थापित होना चाहिए कि वह रहन-सहन के साथ तार्किक संगति बैठा सके। ... दुनिया में व्यक्ति घर जैसा अनुभव करे ना कि कैदी या किसी भागे हुए जैसा। आध्यात्मिकता की नींव गहरी और साज-संभाल कायदे की होनी चाहिए।

धर्म की अभिव्यक्ति उचित विचारों, परिणामकारी क्रिया-कलापों और सही सामाजिक संस्थानों के रूप में होनी चाहिए।'वेदांत की तार्किकता को स्पष्ट करते हुए उपरोक्त विचारों में पगी यह स्थापना जब 'मद्रास विश्वविद्यालय' के प्राध्यापकों के सामने आई तो स्नातकोत्तर स्तर के एक मेधावी छात्र की प्रतिभा का सिक्का जम चुका था। विचारों की गंभीरता और विषय की स्पष्टता में न कोई कमी थी, न ही कहीं टकराहट। हैरानी नहीं कि वेदांत दर्शन की शिक्षाओं में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका पढ़ लेने वाले इस छात्र को आगे चलकर प्रख्यात शिक्षाविद् ही होना था।

स्वतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति,डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की प्रखर सांस्कृतिक समझ और वैचारिकता स्पष्टता
ही शिक्षाविद् के रूप में उनकी ख्याति का आधार थी। उनका जन्म दिवस (5 सितंबर) शिक्षक दिवस के तौर पर जोर-शोर से मनाया जाता है। लेकिन यह भी सच है कि इस रस्मी हल्ले-गुल्ले में जोश और तैयारियां चाहे जितनी हों डॉ. राधाकृष्णन की उस भारतीय वैचारिकता की छाप नहीं दिखती।

इसमें दो राय नहीं कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था की जो लीक स्वतंत्रता के बाद पकड़ी गई उसमें चूक रही। इसके परिणाम समाज को बुरी तरह बेचैन कर रहे हैं। एक ओर नकचढ़ों की नर्सरियां और दूसरी ओर मध्याह्न भोजन के 'लंगर'!! किस मॉडल पर हाथ रखें! आखिर कौन सा मॉडल था जो हमने चुना था? संस्कारों तथा समानता के
साथ शिक्षा को सम्पूर्ण व्यावहारिक ज्ञान, नई सोच, खोज और मौलिक अनुसंधान उपलब्ध कराने में समर्थ होना चाहिए, जो प्राचीन भारत की विशेषता रही है। और शिक्षकों, खासकर सरकारी शिक्षकों की बदहाली का क्या?

हम, हमारेे विद्यार्थी, शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था की दृष्टि से हम कहां खड़े हैं? जबकि इस पर वैश्विक स्तर पर खर्च किया जा रहा है। कुछ प्रश्न मन में कौंधते हैं, जो समाज के लिए हितकारी हैं, सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से उसी धर्म की अभिव्यक्ति का सपना देखने वाले राधाकृष्णन आज सरकारी विद्यालयों की स्थिति देखते तो क्या सोचते? निजी विद्यालयों के लिए मारामारी और उनकी मनमानी देखते तो क्या सोचते? मिशनरी तंत्र का शिक्षा की आड़ में कन्वर्जन नेटवर्क, मदरसों में उन्माद की पाठशालाएं देखते तो क्या सोचते? शिक्षक के तौर पर इस पूरी व्यवस्था का उनका विश्लेषण क्या होता?

खांटी भारतीय पगड़ी और अंग्रेजी के बीच सहज संतुलन स्थापित करने वाले उस शिक्षक को निश्चित ही सदमा लगता जब वह नामी विद्यालयों के बच्चों और आम सरकारी विद्यालयों के छात्रों में फर्क को लगातार बढ़ते देखता।

शिक्षा है तो साधन हैं, साधन हैं तो शिक्षा है.. शिक्षा प्रणाली का यह व्यवस्थागत दुष्चक्र काफी गहरा है और एक ही दिन में नहीं बना। इसे तोड़ा जाना चाहिए था। किन्तु स्वाधीनता के बाद भी समाज को बांटने-बदलने वाली कारगुजारियों पर रोक नहीं लगी। दिलचस्प यह है कि वामपंथ की आयातित विचारधारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था के जिस अंतर को वर्ग विभाजन के तौर पर प्रस्थापित करने की कोशिश करती रही है उन षड्यंत्रों का जवाब भी डॉ. राधाकृष्णन के प्रिय विषय में ही है। भारतीय दर्शन जो हर जीव को समान मानता है और मनुष्य में संस्कारों की स्थापना जरूरी मानता है। साधन के साथ संस्कार हैं तो एक घर से जाने कितनों के लिए शिक्षा दीप जल सकता है। साधन न हों लेकिन स्नेह भाव हो तो कृष्ण और सुदामा सहोदर की तरह साथ-साथ पढ़ सकते हैं।

कृष्ण और सुदामा, उदाहरण हमारी ही संस्कृति का है। लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में बात सच कैसे होगी! सामाजिक समानता के इस भाव के लिए पहल कौन करेगा? सरकार की ओर से यह काम होना चाहिए था, नहीं हुआ। किन्तु न्यायालय ने इस दिशा में कदम उठाया है।

सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति को लेकर हाल में आया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय चौंकाऊ लग सकता है। किन्तु यह ऐसा फैसला है जो व्यवस्थागत बदलाव का निर्णायक बिन्दु हो सकता है। इस देश की संस्कृति जब इंसानों में भेद नहीं करती तो शिक्षा संस्थाओं को यह भेद खड़ा करने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। न्यायालय ने भेद समाप्त करने का आह्वान किया है। अब बारी सरकार की है। सबके लिए शिक्षा, समाज को जोड़ने वाली शिक्षा, मनुष्य को समान समझने वाली शिक्षा, मातृभूमि के लिए नागरिकों को एकजुट
करनेे वाली शिक्षा। हम सबके लिए ऐसी शिक्षा आवश्यक है। यह डॉ. राधाकृष्णन के उस दर्शन के अनुरूप भी है जो सामाजिक संस्थाओं के सर्वहितकारी तार्किक स्वरूप की जरूरत पर बल देते हैं।

शिक्षा में संस्कृति के सूत्र ढूंढने में कुछ मेहनत जरूर लगेगी, लेकिन यह कोई असंभव काम नहीं है। इस शिक्षक दिवस पर अपनी शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियों को एक शिक्षक की नजर से देखें। समस्याओं के हल डॉ. राधाकृष्णन की सोच के अनुसार निकालने का प्रयास करें तो बात बन सकती है।
 साभार:: पाञ्चजन्य 

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित