बुधवार, 4 नवंबर 2015

असहिष्णुता के प्रतिबिम्बों को बदलने का षड़यंत्र






इन दिनों कुछ साहित्यकारों, फिल्मकारों और वैज्ञानिकों द्वारा पुरस्कार लौटाने का एक फैशन सा चल पड़ा है। फैशन अच्छा है। फैशन इतना अच्छा है कि टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर खूब चल रहा है। चर्चाएं शुरू हैं। फैशन का मुद्दा बड़ा ही दिलचस्प है। फैशनवालों का कहना है कि उनकी आजादी खतरे में पड़ गई है। ये और बात है कि उनको पुरस्कार लौटाने की पूरी आजादी मिली है। वे बड़ी आजादी से अपना दुखड़ा रो रहे हैं। उनको मलाल है कि एक चाय बेचनेवाला कैसे देश का शासक बन गया? सब अपना सिर पीट रहे हैं कि जिंदगीभर कलम हम घिसते रहें, और गुणगान एक चायवाले की हो रही है। जिधर देखो, मोदी ही मोदी।
   
लोकतंत्र! क्या खाक लोकतंत्र है! जीवनभर लिखा, अब स्याही सूख गई। पर वाह रे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत! यहां के जनसामान्य साहित्य अकादमी, पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे पुरस्कार प्राप्त महानुभावों को नहीं जानते! इस बात की पीड़ा पुरस्कार प्राप्त महानुभावों को होगी ही, देश की जनता के हृदय में स्थान जो नहीं बना सके! फिर सबको लगा कि अपना प्रचार-प्रसार करना जरुरी है। आइडिया मिला देश और दुनिया में मोदी नाम का जादू चल रहा है। क्यों न उनके नाम का सहारा लिया जाए? उनके राज में पुरस्कार लौटाने से हमारे अच्छे दिन जरुर आयेंगे। हुआ भी ऐसा ही! कल तक जिनके नाम भी नहीं सुने थे, पुरस्कार लौटाने पर सारे मीडियावालों ने उन्हें सिर पर बैठा लिया है। चर्चाएं शुरू हो गईं कि फलां ने पुरस्कार लौटाया। फलां कौन हैं? फलां ने क्यों पुरस्कार लौटाया? और उत्तर मिलना शुरू हो गया। देश की सहिष्णुता खतरे में है। और मीडिया वाले ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ में लग गए।

भई, सहिष्णुता खतरे में है। वो कैसे?कहने लगे, मोदी राज में खाने कीस्वतंत्रता छिनी जा रही है। गौ मांस पर पाबन्दी का माहौल बना है। देश तोधर्मनिरपेक्ष है, सेकुलर है। ऐसे में कोई हिंदुत्व, सनातन संस्कृति और धर्म की बात कैसे कर सकता है? कम्युनिस्ट स्याही के लेखकों का यह यह हिन्दू विरोधी राग बहुत हास्यास्पद है, निंदनीय है।

आज पूरी दुनिया आईएसआईएस, बोको हराम जैसे मजहबी आतंकियों के क्रूरता से आहत है। मजहबी उन्माद ने लाखों निर्दोषों की हत्या की है। वहीं व्यापार और कथित सेवा के नाम पर ईसाइयत को थोपनेवाले किस संस्कृति के थे, सब जानते हैं। क्या मजहबी आतंक फ़ैलानेवाले और धर्मान्तरण  का कुचक्र चलानेवाले सहिष्णु हैं? लेकिन विडम्बना देखिए कि जिन्हें हम देश के महान साहित्यकार कहते हैं, इतिहासकार कहते हैं वे हिंदुत्व को ही असहिष्णुता का प्रतिबिम्ब समझने लगे हैं और अपने झूठे और थोथे विचारों का मीडिया के माध्यम से ढिंढोरा पीट रहे हैं।  ऐसे में क्या वे सचमुच विद्वान् कहलाने के अधिकारी हैं? जिन्हें अपने सांस्कृतिक विरासत से घृणा है, वे लोग सम्मान के पात्र कैसे हो सकते हैं? शायद इसलिए ये लोग भारतीय जनमानस के हृदय में स्थान नहीं पा सके। आज देशवासियों को संत कबीर, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, गुरु नानक, रसखान, रैदास, अब्दुल करीम खानखाना जैसे संत कवियों की याद आ रही है। लोग भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त, दिनकर, निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय बच्चन की रचनाओं और उनके महान व्यक्तित्व की दुहाई दे रहे हैं।

सच है, सारी दुनिया मानती है कि भारत आध्यात्मिक देश है और यही वह देश है जहां से साधकों को मुक्ति का मार्ग मिलता है। सदियों से यह जनमत है, विश्वास है कि भारत की हिन्दू संस्कृति दुनिया में अदभुत, अद्वितीय और सर्वसमावेशक है। यह प्रत्येक जाति, मत, पंथ व सम्प्रदायों को समान आदर देती है। सभी को अपने श्रद्धानुसार पूजा, उपासना और साधना का अधिकार देती है। यही कारण है कि भारत में इस्लाम, ईसाई, पारसी जैसे दूसरे देशों से आए मजहबों को कभी नकारा नहीं गया। भारत सभी मजहबों और उपासना पंथों का आश्रय स्थल हमेशा से रहा है। वह इसलिए क्योंकि यहां की सांस्कृतिक विरासत हिंदुत्व है। यही सर्वपंथ समभाव और सहिष्णुता का  प्रतीक है। इसलिए सारी दुनिया में यह सर्वमान्य है।

लेकिन इन पुरस्कार लौटानेवालों को लगता है कि गौमांस खाने की स्वतंत्रता मिले तो देश में सहिष्णुता रहेगी। देश मेंहमेशा मुगलों का इतिहास पढ़ाया जाएगा तो सहिष्णुता रहेगी। इनकी नज़रों मेंमिशनरी स्कूलों में सरस्वती पूजन का न होना, सहिष्णुता है। मदरसों में वन्दे मातरम् न गाया जाना, सहिष्णुता है। यदि कोई कह दे कि वह हिन्दू है,या कोई यह कह दे कि उसे हिंदुत्व में श्रद्धा है, तो मोदी विरोधियों कीनज़रों में वह ‘असहिष्णु’, ‘कट्टर’ और ‘सांप्रदायिक’ हो जाता है। हिन्दू होना यानी असहिष्णु होना है, ऐसा मानकीकरण करने का षड्यंत्र चल रहा है। इस षड्यंत्र के चलते मोदी विरोधी कहीं यह न कह दे कि श्री, श्रीहरी, श्रीधर,श्रीपाद, ओम, ओमकार जैसे ईश्वरसूचक हिन्दू शब्द भी ‘असहिष्णुता’ के प्रतीकहैं! इसमें कोई आश्चर्य न होगा।  

साभार:: न्यूज़ भारती

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित