सोमवार, 11 अप्रैल 2016

स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है, जब उसके साथ बंधुता हो – डॉ. मोहन भागवत जी

स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है, जब उसके साथ बंधुता हो – डॉ. मोहन भागवत जी

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कर्णावती, गुजरात (विसंकें). रविवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कर्णावती महानगर द्वारा आयोजित वर्षप्रतिपदा उत्सव के अवसर पर अपने उद्बोधन में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि संघ में हम लोग उत्सवों का जो निर्वहन करते हैं, वो सारे उत्सव इस देश में सदियों से चलते आए उत्सव हैं. संघ जिन छह उत्सवों की पालना करता है, उनको उनके राष्ट्रीय आशय के साथ जोड़कर उनको संपन्न करता है. अपने राष्ट्रीय इतिहास कि किसी घटना विशेष को लेकर उस घटना विशेष की तिथि पर उस घटना विशेष पर जो भाव उत्पन्न हुए, उन  विचारों का  एकबार फिर से स्मरण करना और उसको अपने जीवन में उतारना, इसके लिए उत्सवों की प्रासंगिकता होती है. वर्षप्रतिपदा संकल्प का दिवस है. प्राचीनतम घटना के अनुसार वर्षप्रतिपदा सृष्टि का प्रारंभ है, रूपक के रूप में कथा बताई जाती है कि मिट्टी के सैनिकों में प्राण फूंक एक बालक ने  शकों के शक्तिशाली किन्तु भ्रष्ट शासन को उखाड फैंका. उस शालिवाहन सम्राट के विजय का प्रारंभ वर्षप्रतिपदा है. लेकिन हुआ यह था कि मिटटी के पलिंदे जैसा समाज पड़ा था, शालिवाहन ने उस समाज के मन में स्वाभिमान जगाया और उस समाज की संगठित शक्ति के आधार पर शकों को अपनी भूमि से खदेड़ दिया. विजय ध्वज फहराया.

संयोग से वर्षप्रतिपदा संघ के संस्थापक परमपूज्य डॉ. हेडगेवार जी का जन्म दिवस है. भारत के नवोत्थान का संकल्प जो नियति के रूप में आया, वही डॉ. साहब का रूप लेकर जन्मा. नवोत्थान का संकल्प किस लिए तो डॉ. आंबेडकर जी ने संविधान सभा में हमारा संविधान प्रस्तुत करते हुए कहा था कि हमारा देश किसी विदेशी शक्ति ने अपने बलबूते पर नहीं जीता, बल्कि अपने छोटे छोटे संकीर्ण स्वार्थो के कारण आपस में झगड़ते हुए हम लोगों ने अपने भेदों के कारण देश को गुलाम बनाने में परकियों की मदद की.  डॉ. आंबेडकर ने कहा कि हम सब एक हैं, लेकिन स्वतंत्रता और समता को लेकर तरह तरह के पंथों को लेकर अलग अलग शिविर बनाकर बैठे हैं. 

उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता, समता और बंधुता मैंने इस मिटटी में उपजे बुद्ध के विचार को मैंने स्वीकार किया है. लेकिन स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है, जब उसके साथ बंधुता हो बंधुभाव हो. उस बंधुभाव को ही धम्म कहा गया है. ऐसा डॉ. आंबेडकरजी ने कहा. यही धर्म है. उनको भी यह चिंता थी. उन्होंने कहा आपस के भेदों को भूलकर एक देश के नाते यदि हमने अपने जीवन को जीया नहीं तो मात्र यह संविधान आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा.

6डॉ. हेडगेवार जी के मन में भी यही प्रश्न था. डॉ. हेडगेवार जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित किया और यह शिक्षा दी कि संपूर्ण समाज को गुण संपन्न, देश भक्त और संगठित करना है तथा भारत वर्ष को परम वैभव पर पहुंचाना है. देश के महापुरुषों से संपर्क के कारण उनके ध्यान में यह आया कि गुलामी का कारण हमारे अंदरूनी दोष हैं, उन दोषों को दूर कर इस देश के लिए जीने मरने वाला संगठित समाज खड़ा करना. इसके लिये उन्होंने एक पद्धति का निर्माण किया, जिसका नाम है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. अपने इस संकल्प को पूर्णता की ओर जाता देखने के बाद ही उन्होंने मृत्यु का वरण किया.
वर्षप्रतिपदा पर हमारा संकल्प क्या हो, उसकी सिद्धि कैसे हो ? हमारे संकल्प के बारे तो किसी के मन में कोई शंका नहीं है. रोज शाखा में अपने संकल्प का सामूहिक उच्चारण हम सब लोग करते हैं. समाज की संगठित शक्ति के आधार पर नित्य विजय प्राप्त करते हुए भारतवर्ष का दुनिया को जो मूलभूत और महत्वपूर्ण अवदान है धर्म, उसकी सुरक्षा करते हुए हम लोग इस राष्ट्र को परम वैभव संपन्न बनाने के लिए समर्थ होना चाहते है. यह काम हमें करना है और इसके लिए सारे समाज को राष्ट्रभक्ति के सूत्र में आबद्ध करते हुए समाज के लिए देश के लिए संगठित गुण संपन्न बनाना है. सारी दुनिया में भारत माता की जय हो. संघ में एक ही जयकारा चलता है भारत माता की जय और कुछ नहीं.

5लेकिन संकल्प की सिद्धि तब होती है, जब संकल्प के पीछे आचरण होता है. प्रत्येक स्वयंसेवक को जैसा विश्व होना चाहिए, जैसा भारत का समाज होना चाहिए, वैसा बनना पड़ेगा. हमें अपने आचरण को समाज के सामने स्थापित करना है. संघ का प्रभाव बढ़ा है, लेकिन प्रभाव से भी ज्यादा लोगों में संघ का विश्वास बढ़ा है. हमारे आचरण में हमको राष्ट्रीयता का स्पष्ट परिचय देना होगा. अपने जीवन के उद्घोष में राष्ट्रीयता का बिल्कुल संकोच नहीं होना चाहिए.

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हमारी हिंदू संस्कृति का विचार संकुचित नहीं है, हम सर्व समाज को संगठित करना चाहते हैं. हमें तप, स्वाध्याय, शौर्य, धर्म के लक्षणों का पालन करते हुए और सभी को जोड़ते हुए विश्व कल्याण का विचार करना है. इस विचार का बल हमें भारत माता से मिलता है. संघ में स्वयंसेवक किसी स्वार्थ के लिए नहीं आता, यहां सिर्फ देना होता है और यहां आत्मीयता के द्वारा निर्बल को भी सबल बनाने की प्रेरणा देता है. हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और आजीविका इन चारों पहलुओं में सेवाभाव प्रकट होना चाहिए और यह सेवा भाव ऐसा है जो सेवा करते करते अन्य को भी सेवाभावी बना देता है. ऐसी सेवा करने वाले हम स्वयंसेवक हैं, ऐसा आत्मविश्वास के साथ कहते बनना चाहिए. हर परिस्थिति में हर जगह तब हम स्वयंसेवक है और हम संघ हैं. हमें अपने आचरण का उदहारण प्रस्तुत करना होगा. तभी विश्व में सभी कंठों से अपने आप जयकार फूटेगी “भारत माता की जय” यह हमको करना है, यह हमारा व्यक्तिगत, सामूहिक संकल्प है. विषम परिस्थिति में भी अपना धैर्य कायम रखते हुए कटुता मिटाते हुए आचरण करना है. संपूर्ण दुनिया को सुखी करने का संकल्प हमने लिया है. उसी ओर प्रयासरत रहना है, अनुकूलता इतनी है कि ऐसा हम आज करना प्रारंभ करेंगे तो निकट भविष्य में हम लोग ऐसे भारत वर्ष का उदय और उत्कर्ष होते हुए देख लेंगे. हम सबको उस ओर बढ़ने की सदबुद्धि आज अपने संकल्प के स्मरण के कारण हो इतनी प्रार्थना के साथ में अपने चार शब्द समाप्त करता हूँ.
साभार :: vskbharat.com

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित